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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
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पंचम अध्याय .......{391} किन्तु अनेक रूप से चल है, उसी तरह सम्यक्त्वमोह के उदय से श्रद्धान भ्रमण रूप चेष्टा करता है । मलिन दोष इस प्रकार है जैसे मल के योग से शुद्ध स्वर्ण मलिन हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्वमोह के उदय से सम्यक्त्व अपने माहात्म्य को न पाकर मल रंग से मलिन होता है । अगाढ़ दोष इस प्रकार है- आप्त, आगम और वस्तुस्वरूप की श्रद्धान रखते हुए भी जो कम्पित होता है, स्थिर नहीं रहता है, उसे अगाढ़ दोष कहते है । जैसे सभी अर्हन्त परमेष्ठियों में अनन्त शक्ति समान रूप से स्थित होते हुए भी शान्तिक्रिया में शान्तिनाथ भगवान समर्थ हैं, 'विघ्ननाश आदि क्रिया में पार्श्वनाथ भगवान समर्थ हैं', इत्यादि प्रकार से रुचि में शिथिलता होने से तीव्र रुचि से रहित होता है । जैसे वृद्ध पुरुष के हाथ की लकड़ी शिथिल होने से अगाढ़ होती है, वैसे ही वेदकसम्यक्त्व भी अगाढ़ होता है । जिसका अन्त नहीं है, उसे अनन्त कहते हैं । अनन्त के आश्रय से जो बन्धती है, वह अनन्तानुबन्धी कषाय है । अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा मिथ्यात्वमोह, सम्यग्मिथ्यात्वमोह और सम्यक्त्वमोह - इन सात कर्मप्रकृतियों के सर्वोपशम से औपशमिक तथा क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । ये दोनों सम्यक्त्व निर्मल होते हैं । इनमें शंकादि रूप मल लेशमात्र भी नहीं होता है तथा श्रद्धान निश्चल होता है, क्योंकि आप्त, आगम और वस्तुस्वरूप विषयक श्रद्धान के विकल्पों में कहीं भी स्खलन नहीं होता है। श्रद्धा गाढ़ अर्थात् सुदृढ़ होती है, क्योंकि आप्तवचन आदि में तीव्र रुचि होती है । इस प्रकार ऊपर कहे गए तीन प्रकार के सम्यक्त्वों में से किसी भी प्रकार के सम्यग्दृष्टि अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क में से किसी एक कषाय का उदय होने से असंगत होता है । जो जीव अर्हन्त आदि के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में अर्थात् आप्त, आगम और वस्तुस्वरूप में श्रद्धा रखता है, किन्तु उनके विषय में विशेषज्ञान से शून्य होने पर केवल गुरु के नियोग से कि जो गुरु ने कहा वही अर्हन्त भगवान की आज्ञा है, ऐसी श्रद्धा करता है, वह भी सम्यग्दृष्टि ही है । अपनों को विशेष ज्ञान न होने से और गुरु भी अल्पज्ञानी होने से वस्तुस्वरूप अन्यथा रूप से कहे, किन्तु उसे जिनाज्ञा मानकर उसका श्रद्धान करें, तो भी वह सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि उसने जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। उक्त प्रकार से असत् अर्थ का श्रद्धान करता हुआ आज्ञासम्यग्दृष्टि जीव जब अन्य कुशल आचार्यों के द्वारा पूर्व में उसके द्वारा गृहीत असत्यार्थ से भिन्न तत्व गणधर आदि के द्वारा कथित सूत्रों के आधार से सम्यक् रूप से बतलाया जाए और फिर भी यदि वह दुराग्रहवश उस सत्यार्थ का श्रद्धान न करें, तो उस समय से वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है, क्योंकि गणधर आदि के द्वारा कथित सूत्र का श्रद्धान न करने से जिनाज्ञा का उल्लंघन सुप्रसिद्ध है। इसी कारण वह मिथ्यादृष्टि है । जो इन्द्रियों के विषयों में विरति रहित है तथा स-स्थावर जीव की हिंसा का त्यागी नहीं है, केवल जिन भगवान के द्वारा कहे हुए प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि होता है । ३५३
अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क-इन आठ कषायों के उपशम से और प्रत्याख्यानीय कषायों के देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से तथा सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभाव या क्षय से सकल संयम रूप भाव नहीं होता, किन्तु देशसंयम होता है अर्थात् प्रत्याख्यानीय कषाय के उदय में सफल चारित्र रूप परिणाम नहीं होता है, क्योंकि प्रत्याख्यानीय कषाय सकल संयम को आवरण करती है । देशसंयम से युक्त जीव पंचम गुणस्थानवर्ती होता है । देशसंयत को विरताविरत भी कहा जाता है, क्योंकि एक ही काल में जो जीव त्रस हिंसा से विरत है, वही जीव स्थावर हिंसा से अविरत है । इसी तरह जो विरत है, वही अविरत है । विषय भेद की अपेक्षा कोई विरोध न होने से विरताविरत व्यपदेश के योग्य होता है । प्रयोजन के बिना स्थावर हिंसा भी नहीं करता है । उसकी रुचि एकमात्र जिन भगवान में होने से वह देशसंयत सम्यग्दृष्टि होता है । ३५४
जिस कारण से संज्वलन कषाय के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभाव या क्षय हो तथा शेष बारह कषायों का उदय नहीं हो तथा संज्वलनकषाय और नोकषाय के निषेकों का सवस्थारूप उपशम होने पर तथा संज्वलन और नोकषाय के देशघाती स्पर्द्धकों का तीव्र उदय होने पर संयम के साथ प्रमाद भी उत्पन्न होता है । इसी कारण से छठे गुणस्थानवर्ती जीव को प्रमत्त और विरत अर्थात् प्रमत्तसंयत कहते हैं । २५५
३५३ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. २६ ३५४ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. ३१ ३५५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. ३२
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