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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{390} प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलि शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक कषाय का उदय होने पर जिसका सम्यक्त्व च्युत होता है, वह सासादन गुणस्थान कहा जाता है ।३५१ द्वितीय उपशम सम्यक्त्व के काल में भी सासादन गुणस्थान की प्राप्ति होती है, ऐसा कषायप्राभृत का अभिप्राय है । जब जीव सम्यक्त्व परिणामरूप रत्नपर्वत के शिखर से मिथ्यात्व परिणामरुपी भूमि की ओर पतित होता है, तो उसके मध्य के काल में जो एक समय से छः आवलि पर्यन्त रहता है, वह जीव सम्यक्त्व से च्युत हो जाने के कारण सासादन गुणस्थानवर्ती होता है । पर्वत से गिरा व्यक्ति भूमि में आने से पहले गिरता हुआ कुछ समय मध्य में रहता है, वैसे ही जो सम्यक्त्व पतित होने पर मिथ्यात्वरूप भूमि को प्राप्त न करके छः आवलि मात्र अन्तरालकाल में रहता है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक कर्मप्रकृति के उदय से जीव का एक साथ सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिला-जुला परिणाम होता है, यह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है ।३५२ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व कर्म के उदय की तरह न केवल मिथ्यात्व का परिणाम होता है और न सम्यक्त्व प्रकृति के उदय की तरह सम्यक्त्व का परिणाम होता है, अपितु सम्यग्मिथ्यात्वरूप एक मिला-जुला परिणाम होता है । जैसे मिले हुए दही और गुड़ को अलग करना अशक्य है, उसी प्रकार मिला हुआ सम्यग्मिथ्यात्व परिणाम भी केवल सम्यक्त्व रूप से या केवल मिथ्यात्वभावरूप से अलग करना सम्भव नहीं है । ऐसी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जिसमें होती है, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सर्वविरति या देशविरति को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि उनको ग्रहण करने योग्य परिणाम उसमें नहीं होते । चारों गतियों में ले जाने वाला जो चार प्रकार का आयुष्यकर्म है, वह उनका बन्ध भी नहीं करता है । मरणकाल आने पर जीव नियम से सम्यग्मिथ्यारूप परिणाम को त्यागकर असंयतसम्यग्दृष्टि को अथवा मिथ्यादृष्टि को नियम से प्राप्त करने के पश्चात् ही मरता है । सम्यक्त्व परिणाम और मिथ्यात्व परिणाम में से जिस परिणाम में परभव संबन्धी आयुष्य कर्म का पूर्व में बन्ध किया था, उसी सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्व रूप परिणाम में आने पर ही जीव का मरण होता है, किन्तु कुछ आचार्यों का अभिप्राय ऐसा नहीं है, उनके मन से सम्यक्त्व परिणाम में वर्तमान कोई जीव उसके योग्य परभव की आयुष्य का बन्ध करके पुनः सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर पीछे सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को प्राप्त करके मरता है । मिथ्यात्व में, वर्तमान कोई जीव उसके योग्य उत्तर भव की आयु का बन्ध करके पुनः सम्यग्दृष्टि होकर पीछे सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । यह कथन बद्धायुष्क के लिए है । मिश्र गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है। अनन्तानुबन्धी कषायों का प्रशस्त उपशम नहीं होता है, इसीलिए उनका अप्रशस्त उपशम अथवा विसंयोजन होने पर तथा दर्शन मोहनीय के भेद रूप मिथ्यात्वमोह और सम्यग्मिथ्यात्वमोह का प्रशस्त उपशम, अथवा अप्रशस्त उपशम, अथवा क्षय के सम्मुख होने पर और सम्यक्त्वमोह के देशघाती स्पर्द्धकों का उदय रहते हुए ही जो तत्वार्थश्रद्धान रूप सम्यक्त्व होता है, उसका नाम वेदकसम्यक्त्व है । सम्यक्त्वमोह नामक कर्मप्रकृति के उदय में देशघाती स्पर्द्धकों का उदय तत्त्वार्थ के श्रद्धान को विनष्ट करने की शक्ति से शून्य होने से सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ़ होता है, सम्यक्त्वमोह नामक कर्मप्रकृति का उदय तत्त्वार्थश्रद्धान को मलिन करता है, नष्ट नहीं करता है, इसी कारण से वह देशघाती है । सम्यक्त्वमोह के उदय को अनुभव करने वाले जीव का तत्त्वार्थश्रद्धान वेदकसम्यक्त्व कहा जाता है । इसी का नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी है, क्योंकि दर्शनमोह के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभाव या क्षय होने पर तथा देशघाती स्पर्द्धकरूप सम्यक्त्वमोह का उदय होने पर और उसके ऊपर के अनुदय प्राप्त निषेकों का सत् अवस्था रूप उपशम होने पर वेदकसम्यक्त्व होता है । वेदकसम्यक्त्व का जघन्यकाल पाप का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल छासठ सागरोपम है । चल का लक्षण इस प्रकार है - आप्त, आगम और पदार्थ विषयक श्रद्धान के विकल्पों में जो चलित होता है, उसे चल कहते हैं । जैसे-अपने द्वारा कराए गए जिनबिंब आदि में 'यह मेरे देव है', इसप्रकार दूसरे के द्वारा कराए गए जिनबिंब आदि में 'यह पराया है', ऐसा भेद करने से चल दोष होता है । जैसे जल की अनेक तरंगों में जल तो एक ही है, ३५१ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा क्र.-१६ ३५२ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा क्र.-२१ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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