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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{389} गुणस्थानों के नाम के उल्लेख के पश्चात् प्रत्येक गुणस्थान के स्वरूप का उल्लेख किया गया है । यद्यपि मूल ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है, किन्तु यहाँ हम उसे अति संक्षेप में ही प्रस्तुत करेंगे।
मोहनीय कर्म, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का है । दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व मोहनीय नामक प्रकृति के उदय से जीव को मिथ्यात्व गुणस्थान होता है,३५० जिसका लक्षण अतत्वश्रद्धान है । वह मिथ्यात्व एकान्त, विपरीत, वैनयिक, सांशयिक और अज्ञान के भेद से पांच प्रकार का है। उनमें जीवादि वस्तु सर्वथा सत् ही है, या सर्वथा असत् ही है, या सर्वथा एक ही है, या सर्वथा अनेक है, इत्यादि निरपेक्ष एकान्त कथन को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं । अहिंसा आदि लक्षण वाले समीचीन धर्म का फल स्वर्ग आदि का सुख है । उसको हिंसा आदि रूप यज्ञ का फल मानना जीव के प्रमाण सिद्ध मोक्ष का निराकरण करना, प्रमाण से बाधित अवधारणा का अस्तित्व बतलाना, इत्यादि एकान्त का अवलम्बन करते हुए जो विपरीत अभिनिवेश है, वही विपरीत मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की अपेक्षा निषेध कर गुरु के चरणों की पूजा आदि रूप विनय के द्वारा ही मुक्ति होती है । इसप्रकार का श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है । प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से गृहीत अर्थ का देशान्तर और कालान्तर में व्यभिचार सम्भव होने से परस्पर विरोधी आप्त के वचन भी प्रमाणित नहीं होते, इसीलिए 'यही तत्व है' - इस प्रकार का निर्णय करना शक्य न होने से सर्वत्र संशय करना सांशयिक मिथ्यात्व है । ज्ञानावरण और दर्शनावरण के तीव्र उदय से आक्रान्त एकेन्द्रिय आदि जीवों में 'वस्तु अनेकान्तात्मक है', ऐसे सामान्य ज्ञान का अथवा 'जीव का लक्षण उपयोग है', ऐसे विशेष ज्ञान का जो अभाव है, वह अज्ञान मिथ्यात्व है । इस प्रकार स्थूल अंश के आश्रय से मिथ्यात्व के पांच भेद बताए गए हैं । सूक्ष्म अंश के आश्रय से असंख्यात लोक मात्र भेद हो सकते हैं। मिथ्यात्व के उपर्युक्त पांच प्रकारों के उदाहरण इस प्रकार हैं - एकान्त क्षणिकवादी बौद्ध आदि मत एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं । हिंसक यज्ञों के द्वारा स्वर्ग मिलता है, ऐसा माननेवाले ब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं । तापस आदि वैनयिक मिथ्यादृष्टि है । कर्मफल में अविश्वास रखने वाले सांशयिक मिथ्यादृष्टि है । गोशालक आदि अज्ञान मिथ्यादृष्टि है। तत्वश्रद्धान से रहित और उदय में आए हुए मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । वह न केवल तत्वश्रद्धान से रहित होता है, अपितु अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को अथवा मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रयात्मक धर्म को भी स्वीकार नहीं करता । जैसे पीत ज्वर से ग्रस्त व्यक्ति मीठे दूध आदि रस को पंसद नहीं करता, उसी तरह मिथ्यादृष्टि को धर्म नहीं रुचता । वस्तुस्वभाव के अश्रद्धान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि जीव जिनउपदिष्ट अर्थात् अर्हन्त आदि के द्वारा कहे गए आप्त आगम और अनन्तधर्मात्मक वस्तु स्वरूप में श्रद्धान नहीं करता है । जिसका वचन उत्कृष्ट है, ऐसा आप्त का कथन प्रवचन या परमागम कहा जाता है । घट, पट, स्तम्भ आदि पदार्थों को यथार्थ रूप से जानते हुए एवं श्रद्धान करते हुए भी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कहा जाता है, क्योंकि उसका जिनवचन में श्रद्धान नहीं है। ___मिथ्यादर्शन रूप परिणाम के भेद इस प्रकार हैं-आत्मा में उपस्थित कोई मिथ्यादर्शन रूप परिणाम रूपादि की उपलब्धि होने पर भी कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास को पैदा करता है। उनमें से कारणविपर्यास इस प्रकार है - कोई मानते हैं कि रूपादि का कारण एक अमूर्त नित्य तत्व है । दूसरे कहते है कि परमाणु पृथ्वी आदि जाति भेद से भेदवाले है । पृथ्वी जाति के परमाणुओं में रूप, रस, गंध और स्पर्श चारों गुण होते हैं । जल जाति के परमाणुओं में रस, रूप और स्पर्श-तीन गुण होते हैं । तेजो जाति के परमाणुओं में रूप और स्पर्श-दो गुण होते है। वायु जाति के परमाणुओं में केवल एक स्पर्श गुण होता है । पृथ्वी जाति के परमाणुओं से पृथ्वी ही बनती है, जल जाति के परमाणुओं से जल ही बनता है । इस प्रकार वे परमाणु समान जातीय कार्यों को ही उत्पन्न करते है, यह कारणविपर्यास है । दूसरा भेदाभेदविपर्यास इस प्रकार है - कारण से कार्य भिन्न ही होता है, या अभिन्न ही होता है, ऐसी कल्पना भेदाभेदविपर्यास है । स्वरूपविपर्यास इसप्रकार है - रूप आदि विषय है अथवा नही है, अथवा उनके आकार रूप परिणत ज्ञान की ही सत्ता है, उनका आलम्बन या आधार बाह्य वस्तु नहीं है । इस प्रकार मिथ्यात्व के कारण से कुश्रुतज्ञान के विकल्प होते है । इन सबका मूल कारण मिथ्यात्व कर्म का उदय ही है। ३५० गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्रमांक - १५ पृ. ४६
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