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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{248}
९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान :
आत्म-परिणामों की विशुद्धि के कारण संज्वलन, क्रोध, मान और माया का उपशम या क्षय करनेवाला साधक इस गुणस्थान को प्राप्त होता है । जैसा कि पूर्व में इंगित किया है, इस गुणस्थान में समकाल में श्रेणी आरोहण करनेवाले साधक को प्रतिसमय होनेवाली आत्म-विशुद्धि के परिणामों में एकरूपता होती है । अतः यह गुणस्थान अनिवृत्तिकरण कहा जाता है । १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान :
सूक्ष्म रूप से रहे हुए संज्वलन लोभ का उदय इस अवस्था में बना रहता है, किन्तु इस गुणस्थान के अन्त में साधक इसका भी उपशम या क्षय कर अग्रिम गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है । लोभकषाय की सूक्ष्म रूप से रही हुई सत्ता के कारण भी इसे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान कहा जाता है । ११. उपशान्तमोह गुणस्थान :
मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का उपशम करनेवाला उपशान्तकषाय कहा जाता है । इस अवस्था में मोहनीय कर्म की कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में तो रहती हैं, किन्तु इनके उदय का पूर्ण अभाव रहता है, इसी कारण इसे उपशान्तमोह कहा जाता है । १२. क्षीणमोह गुणस्थान :
जो साधक की मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का क्षय कर देता है, वह क्षीणमोह नामक गुणस्थान को प्राप्त होता है । १३. सयोगी केवली गुणस्थान :
जिस साधक का मोहनीय कर्म के साथ-साथ दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म भी पूर्णतया क्षय हो जाता है, वह सयोगी केवली कहा जाता है । १४. अयोगी केवली गुणस्थान :
जिन केवली भगवान में मन-वचन काया की प्रवृत्ति भी नहीं रहती है, वह अयोगी केवली कहा जाता है । इस गुणस्थान को प्राप्त कर जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है । इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन किया है । इस चर्चा के पश्चात् उन्होंने किन गुणस्थानों में, किन-किन कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है, इसकी चर्चा की है।
तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों का संवर (बन्ध-विच्छेद)
मिथ्यात्व की प्रधानता से कर्मों का आस्रव होता है, मिथ्यात्व का निरोध हो जाने से उन कर्मों का सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में संवर होता है । मिथ्यात्वमोह, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये जातिचतुष्क, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतपनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारण शरीर-ये सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व के निमित्त से आनेवाली हैं ।
___ असंयम के तीन भेद बताए गए हैं । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान-ये तीन भेद हैं; अतः इन कषाय निमित्त से आनेवाले कर्मों का इन कषाय के अभाव में संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद होता है । निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंच आयुष्य, तिर्यंचगति, मध्यम चार संस्थान, मध्यम चार संघयण (संहनन), तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, अनादेय
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