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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{247} ४. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान :___ औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक-इनमें से किसी भी सम्यग्दर्शन से युक्त होकर जो साधक चारित्रमोह के उदय के कारण विरति को स्वीकार करने में असमर्थ होता है, वह असंयतसम्यग्दृष्टि कहा जाता है । ऐसे व्यक्ति के तीनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं । जो साधक चतुर्थ गुणस्थान से आगे आत्मविशुद्धि परिणाम रूप किसी भी गुणस्थान को प्राप्त करता है, तो वहाँ उसमें नियम से सम्यक्त्व तो होता ही है। ५. संयतासंयत गुणस्थान : __चतुर्थ गुणस्थान के आगे के सभी गुणस्थानों का सम्बन्ध चारित्रमोह की कर्मप्रकृतियों के उपशम, क्षायोपशम और क्षय से है । जिसप्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय की स्थिति में सम्यक्त्व नहीं होता, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण कषायों की उपस्थिति में चारित्र का उदय नहीं होता है, अतः इन्हें सर्वघाती कहा गया है । किसी भी साधक में अनन्तानुबन्धी कषाय और अप्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय का क्षय या उपशम होने पर ही प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क के उदय से संयम ग्रहण करने की शक्ति का अभाव होता है, किन्तु उसके साथ ही उसमें देशघाती संज्वलन कषाय और नौ कषायों का उदय रहने से उसमें संयमासंयम नामक पांचवाँ गुणस्थान होता है । ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान :___अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क के उदय का क्षय या उपशम होने पर तथा संज्वलन और नौ कषायों के उदय की स्थिति रहने पर साधक प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होता है । आचार्य अकलंकदेव के अनुसार ऐसा साधक पन्द्रह प्रकारों के प्रमादों के उदय के कारण अपने चारित्र परिणामों से कभी-कभी स्खलित होता रहता है, अतः इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान में देशघाती, संज्वलन कषाय और नौ कषायों का उदय सम्भव रहता है और उसके परिमाणस्वरूप प्रमाद की स्थिति भी बनी रहती है, अतः इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है । ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान : इस गुणस्थान में साधक संज्वलन कषाय चतुष्क और नौ कषायों के उदय की संभावना होते हुए भी वह सजग रहता है । प्रमाद का अभाव होने के कारण वह संयम से विचलित नहीं होता है, अतः इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है । इसके आगे गुणस्थानों में साधक अपनी विकास यात्रा को दो श्रेणियों में विभाजित कर देता है - उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। जो साधक मोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ आगे बढ़ता है, वह उपशमश्रेणी प्राप्त करता है, किन्तु ऐसा साधक नियम से ही ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान से नीचे गिरता ही है; किन्तु जो साधक क्षपकश्रेणी से आगे बढ़ता है, वह नियम से मोहनीय कर्म को क्षीणकर सयोगी केवली अवस्था प्राप्त करता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्रेणी का आरोहण सातवें गुणस्थान के अन्त में और आठवें गुणस्थान के प्रारम्भ में निश्चित होता है । ८. अपूर्वकरण गुणस्थान : सातवें गुणस्थान के अन्त में प्रारम्भ की गई श्रेणी को चढ़नेवाला साधक आगे अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । ज्ञातव्य है कि इस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का न तो क्षय होता है, न ही उपशम होता है; किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण की अवस्थाएं घटित होती हैं । इस गुणस्थान में प्रारम्भ की गई उपशम या क्षपकश्रेणी के आधार पर साधक उपशमक या क्षपक कहा जाता है। आचार्य अकलंकदेव के अनुसार इस गुणस्थान में उपशमक या क्षपक शब्द का व्यवहार घी के घड़े की तरह मात्र उपचार से ही किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only sonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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