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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{249} नामकर्म और नीचगोत्र-इन अनन्तानुबन्धी निमित्त से आनेवाली २५ प्रकृतियों का एकेन्द्रिय आदि सासादनसम्यग्दृष्टि तक जीव बन्धक होते हैं । अनन्तानुबन्धी के अभाव में आगे के गुणस्थानों में इनका संवर हो जाता है । अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी-इन
अप्रत्याख्यानीय कषाय हेतुक दस प्रकृतियों के एकेन्द्रिय आदि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त बन्धक होते हैं । उसके अभाव में संयतासंयत आदि गुणस्थानों में उनका संवर होता है । सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुष्य का बन्ध नहीं होता है । प्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कर्मप्रकृतियों के प्रत्याख्यानावरण के निमित्त से एकेन्द्रियादि संयतासंयत गुणस्थान पर्यन्त बन्धक होते हैं । उसके अभाव में अग्रिम गुणस्थानों में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अशाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिरनामकर्म, अशुभनामकर्म और अयशस्कीर्तिनामकर्म-इन कर्मप्रकृतियों का आनव प्रमाद के निमित्त से होता है । प्रमाद के अभाव में अग्रिम गुणस्थानों में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है । देवायु के बन्ध का आरम्भ प्रमाद ही कारण होता है और उसके समीपवाला अप्रमाद भी होता है, अतः अप्रमत्त के अभाव में अग्रिम गुणस्थानों में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कषाय मात्र से कर्मप्रप्रकृतियों का आस्रव होता है । कषाय के अभाव में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद होता है । प्रमाद और अप्रमाद से रहित कषाय आठवाँ, नवाँ और दसवाँ-इन तीन गुणस्थानों में तीव्र, मध्यम और जघन्य रूप में विद्यमान रहता है । अपूर्वकरण गुणस्थान के आदि संख्येय भाग में निद्रा और प्रचला-इन दो कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । उससे आगे संख्यात भाग में देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, पराघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, प्रशस्तविहायोगति नामकर्म, त्रस नामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, प्रत्येक शरीर, स्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, आदेयनामकर्म, तीर्थकरनामकर्म, और निर्माणनामकर्म-इन तीस कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । इसी गुणस्थान के चरम समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा-इन चार कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । ये तीव्र कषाय के उदय से बन्ध होनेवाली कर्मप्रकृतियाँ उसके अभाव में निर्दिष्ट भाग से आगे संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद को प्राप्त हो जाती हैं । अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान के प्रथम भाग से लेकर संख्यात भागों में पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध का बन्ध अर्थात् आस्रव होता है । इसके आगे शेष संख्येय भागों में संज्वलन मान और संज्वलन माया का बन्ध अर्थात् आम्रव होता है । अन्तिम भाग में संज्वलन लोभ बन्ध अर्थात् आसव को प्राप्त होती है । मध्यम कषाय के कारण इन कर्मप्रकृतियों का आस्रव होता है । अतः निर्दिष्ट भागों से अग्रिम स्थान में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है । पांच ज्ञानावरण, चारदर्शनावरण, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय मन्दकषाय के कारण इन कर्मप्रकृतियों का आस्रव अर्थात् बन्ध होता है, उससे आगे मन्दकषाय के अभाव के कारण इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है । सातावेदनीय का उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थान में योग होने के कारण बन्ध अर्थात् आस्रव होता है । योग के अभाव में आगे उसका बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर हो जाता है । अतः अयोगी केवली गुणस्थानवाले जीव को संवर हो जाता है ।
| उपसंहार ।
इस प्रकार हम देखते है कि आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में चौथें अध्याय के इक्कीसवें सूत्र, छठे अध्याय के चौथे सूत्र, नवें अध्याय के पहले, सातवें, दसवें और छत्तीसवें सूत्र की टीका में गुणस्थानों की अवधारणा का उल्लेख किया है। चौथे अध्याय के इक्कीसवें सूत्र की टीका में मात्र गतियों की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और विरताविरत (श्रावक)- इन चार गुणस्थानवी जीव देवलोक में कहाँ तक उत्पन्न हो सकते हैं; इसकी चर्चा की गई है । गुणस्थानों
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