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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. चतुर्थ अध्याय........{250) के सन्दर्भ में अन्य कोई विस्तृत विवरण यहाँ उपलब्ध नहीं है । छठे अध्याय के चौथे सूत्र की टीका में विभिन्न गुणस्थानों में किस प्रकार का आस्रव होता है, इसकी चर्चा की गई है । इस चर्चा में यह बताया गया है कि प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक जीव में कषाय का उदय रहता है, अतः कषाय के निमित्त से इन जीवों को साम्परायिक आस्रव होता है । उपशान्तमोह गुणस्थान, क्षीणमोह गुणस्थान और सयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों के योग प्रवृत्ति होने से कर्मों का आसव तो होता है, किन्तु कषाय के अभाव में स्थिति एवं अनुभाग बन्ध नहीं होने के कारण उनको मात्र ईर्यापथिक आमव होता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि साम्परायिक आस्रव में ही कर्मों का स्थितिबन्ध होता है और ईर्यापथिक आस्रव में स्थितिबन्ध नहीं होता है । इस प्रकार आध्यात्मिक विकास के मार्ग में साम्परायिक आस्रव भी बाधक होता है, ईर्यापथिक आस्रव बाधक नही होता है । यहाँ हम यह देखते है कि अकलंकदेव ने चौथे अध्याय के इक्कीसवें सूत्र की टीका में और छठे अध्याय के चौथे सूत्र की टीका में मात्र का उल्लेख किया है। उनके सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन नहीं है। गणस्थानों के सन्दर्भ में विस्तृत विवरण उन्होंने नवें अध्याय की टीका में लिया है । तत्त्वार्थराजवार्तिक में नवें अध्याय के पहले, सातवें, दसवें और छत्तीसवें सूत्र की टीका में गुणस्थानों का विवरण विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है । जैसा कि हम जानते है कि नवें अध्याय के प्रथम सूत्र | अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में चौदह गुणस्थानों के नामों के साथ-साथ उनके स्वरूप का भी विवेचन किया गया है और यह बताया है कि किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद होता है । बन्ध-विच्छेद की इस चर्चा में यह भी स्पष्ट रूप से बताया है कि गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध रहता है और किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीका में आचार्य अकलंकदेव ने नवें अध्याय के सातवें सूत्र में विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों की क्या स्थिति होती है, इसका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । वार्तिक का यह अंश मार्गणाओं के प्रसंग में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करता है, फिर भी यह चर्चा सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अल्प ही है । मार्गणाओं के प्रसंग में गुणस्थानों की यह चर्चा पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की टीका में की है । ज्ञातव्य है कि मार्गणाओं और गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते हुए पूज्यपाद देवनन्दी जिस गहराई में गए, उस गहराई में जाने का प्रयत्न आचार्य अकलंकदेव ने नहीं किया । वे मात्र इतनी चर्चा करते हैं कि किन मार्गणाओं में कौन-कौन से गुणस्थान सम्भव हैं; जबकि पूज्यपाद देवनन्दी ने वहाँ पर सत्संख्यादि आठ अनुयोगद्वारों में, प्रत्येक में चौदह मार्गणाओं की और उन मार्गणाओं में गुणस्थानों की चर्चा की है । यह विवरण निश्चित ही अकलंकदेव की अपेक्षा अधिक गम्भीर और विस्तृत है । आगे नवें अध्याय के दसवें सूत्र की टीका में आचार्य अकंलकदेव ने, किस गुणस्थान में, कितने परिषह सम्भव है, इसकी चर्चा की है । यहाँ पर मात्र यही बताया गया है कि पहले से नवें गुणस्थान तक बाईस परिषह सम्भव होते हैं । ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म सम्बन्धी आठ परिषह का अभाव होने से चौदह परिषह होते हैं, किन्तु इससे अग्रिम सूत्र की टीका में उन्होने सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती, जिनको ग्यारह परिषह उपचार से होते हैं, ऐसा प्रतिपादन किया है । इसी प्रसंग में उन्होंने यथाशक्य दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से अपने तर्क भी प्रस्तुत किए है और यह बताया है कि जिनों में (सयोगी केवली में) उपचार से ही ग्यारह परिषह का सम्भाव्य मानना चाहिए, वास्तविक रूप में नहीं । इससे आगे नवें अध्याय के ध्यान सम्बन्धी छत्तीसवें सूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने, किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा सम्भव है, इसकी विस्तृत चर्चा की है। ये सभी चर्चाएं हम पूर्व में कर आए हैं, इसलिए यहाँ तो केवल विषय का उपसंहार करने की दृष्टि से ही निर्देश किया जा रहा है । आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में गुणस्थानों का जो उल्लेख किया है, वह इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि अकलंकदेव के समक्ष न केवल गुणस्थानों की अवधारणा थी, अपितु गुणस्थानों में कर्मों के उदय, उदीरणा, बन्ध, बन्धविच्छेद और सत्ता आदि को लेकर भी विस्तृत चर्चाएं हो रही थी और आचार्य ने उन सब चर्चाओं को अपनी Jain Education Intemational Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only Ww www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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