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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका में समाहित करने का प्रयत्न किया । तत्त्वार्थसूत्र की श्लोकवार्तिक टीका और गुणस्थान दिगम्बर पम्परा में तत्त्वार्थसूत्र पर जो महत्वपूर्ण टीकाएं उपलब्ध हैं, उनमें पूज्यपाद देवनन्दी कृत सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थराजवार्तिक के पश्चात् विद्यानन्द स्वामी विरचित श्लोकवार्तिक है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र पर गंधहस्ति महाभाष्य का भी निर्देश मिलता है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । विद्यानन्दजी कृत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक को, श्लोकवार्तिक- ऐसा नाम इस आधार पर दिया गया है कि इस टीका में मुख्यतया श्लोकों की प्रधानता है; यद्यपि बीच-बीच में गद्य भाग उपलब्ध हैं, फिर भी पदों की प्रधानता के कारण ही इसे श्लोकवार्तिक नाम से ही जाना जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में यद्यपि पूर्ववर्ती ग्रन्थ की अपेक्षा गुणस्थानों का विवेचन अल्प ही है, किन्तु ग्रन्थकार को जहाँ-जहाँ प्रासंगिक लगा है, वहाँ उन्होंने गुणस्थानों का उल्लेख किया है। प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए श्लोक संख्या ६० के अनन्तर गद्य भाग में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ज्ञानावरण और दर्शनावरण की कर्मप्रकृतियों के क्षय - उपशम का निर्देश किया है । यद्यपि यहाँ यह भी बताया है कि ज्ञानावरण की पांच और दर्शनावरण की नौ कुल चौदह कर्मप्रकृतियों का पूर्णतः क्षय तो सयोगी केवली गुणस्थान के पूर्व क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ही होता है । क्षीणकषाय गुणस्थान के प्रथम समय से साधक इनके क्षय का प्रयत्न करता है और अन्त में उन्हें क्षय कर देता है । आगे यह भी बताया गया है कि क्षीणकषाय, गुणस्थान में ज्ञानावरण और दर्शनावरण का और अन्त में अन्तराय कर्म का क्षय कर देता है । सयोगी केवली अवस्था के अन्दर जो नाम आदि चार कर्म अवशिष्ट हैं, उनका पूर्णतः क्षय तो अयोगी केवली गुणस्थान के अन्त में ही होता है । इसी आधार पर यह भी बताया गया है कि अयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग कारणभाव में ही रहता है । अयोगी केवली गुणस्थान के पश्चात् जब आत्मा मोक्ष को प्राप्त कर लेती है, तो फिर उसके सम्यक् दर्शन ज्ञान - चारित्र स्वभाव रूप में वर्तते हैं । विद्यानंदजी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के द्वितीय अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में श्लोक संख्या छः, सात और आठ में मिथ्यात्व, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व - ऐसे चार गुणस्थानों का नाम निर्देश किया है, यद्यपि यहाँ नाम निर्देश के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नही किया है । पुनः आठवें अध्याय के बीसवें सूत्र की व्याख्या में अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय इन दो गुणस्थानों के नाम मात्र निर्देश किए है और यह बताया है कि इन गुणस्थानों की समयावधि अन्तर्मुहूर्त होती है । विद्यानंदजी ने गुणस्थानों की अवधारणा का विशेष स्पष्ट निर्देश तो नवें अध्याय में ही दिया है। नवें अध्याय के प्रथम सूत्र की विवेचना करते हुए सर्वप्रथम उन्होने मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक चौदह ही गुणस्थानों का न केवल नाम-निर्देश किया है, अपितु चौदह ही गुणस्थानों के स्वरूप को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है । विद्यानंदजी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के नवें अध्याय के प्रथम सूत्र के तीसरे श्लोक की व्याख्या में चौदह गुणस्थानों का नाम-निर्देश करते हुए उनके नामों का और उनके लक्षणों का उल्लेख किया है । ये हैं - १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान २. सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ४. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ५. संयतासंयत गुणस्थान ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ८. अपूर्वकरण गुणस्थान ६ अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान ११. उपशान्तमोह गुणस्थान १२. क्षीणकषाय गुणस्थान १३. सयोगी केवली गुणस्थान १४. अयोगी केवली गुणस्थान । मिथ्यात्व के उदय से जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं है और जो मिथ्यादर्शन के उदय के कारण उसके वशीभूत है, वह मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय और मिथ्यात्व के उदय के अभाव के परिणामस्वरूप जो अवस्था बनती है, उसे सासादनसम्यग्दृष्टि कहा जाता है। जो साधक सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के बीच यथार्थ निर्णय लेने की क्षमता नहीं रखता Jain Education International चतुर्थ अध्याय........{251} For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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