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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{252} है अर्थात् जो न तो सम्यक्त्व को ग्रहण करता है और न ही मिथ्यात्व को, ऐसा साधक सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । सम्यक्त्व । युक्त होकर भी चारित्र मोहनीय के उदय से जो आंशिक विरति को स्वीकार नहीं कर पाता है, वह असंयतसम्यग्दृष्टि या अविरतसम्यग्दृष्टि कहा जाता है। आंशिक रूप से जिसने विषय भोगों से विरक्ति ली है, किन्तु आंशिक रूप से जुड़ा हुआ भी है, ऐसा साधक संयतासंयत कहा जाता है । संयम या चारित्र को प्राप्त करके भी जो प्रमादवान है, वह प्रमत्तसंयत कहा जाता है । पूर्व की अपेक्षा जिसके आत्म-विशुद्धि के परिणाम अपूर्व होते हैं, ऐसा उपशमक या क्षपक अपूर्वकरण, गुणस्थानवर्ती माना जाता है। स्थूल भावों की अपेक्षा जिन उपशमक या क्षपकों के परिणाम में समरूपता होती है, वे अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। जिसमें सूक्ष्मभावों का उपशम या क्षपण कर दिया है, वह सूक्ष्मसम्पराय है अथवा उपशम या क्षपण के द्वारा जिसके कषाय भाव सूक्ष्ममात्र रहे है, वह सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान है। कषायों के सर्वथा उपशम के आधार पर उपशान्तमोह गुणस्थान और कषायों के सर्वथा क्षय के आधार पर क्षीणमोह गुणस्थान होता है । घातीकर्मों का सर्वथा क्षय होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन
न होने पर सयोगीकेवली कहा जाता है । योग के सद्भाव और अभाव के आधार पर केवलियों के दो भाग होते हैं । जिनमें योगों का सद्भाव है, वह सयोगी केवली गुणस्थान कहा जाता है और जिनमें योगों का असद्भाव है, वह अयोगी केवली गुणस्थान कहा जाता है । सयोगी केवली गुणस्थान तक योग के निमित्त से आस्रव बना रहता है, अतः उक्त गुणस्थान तक देशसंवर ही कहा गया है, किन्तु योग का अभाव हो जाने पर सम्पूर्ण रूप से संवर को प्राप्त अयोगी केवली कहा जाता है । इसी अध्याय के सातवें सूत्र की टीका में उन्होंने जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान-तीनों का निर्देश किया है । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे न केवल गुणस्थान की अवधारणा से परिचित थे, अपितु गुणस्थानों का जीवस्थान और मार्गणास्थान से क्या और कैसा सम्बन्ध है, इसकी उन्हें जानकारी रही है । यद्यपि इस सम्बन्ध में नाम-निर्देश के अतिरिक्त विशेष जानकारी प्रस्तुत कृति में उपलब्ध नहीं है । नवें अध्याय के आठवें सूत्र से लेकर बारहवें सूत्र तक किस गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं, इसकी चर्चा है । अकलंकदेव के समान ही विद्यानन्दजी ने भी बादरसम्पराय तक बाईसों परिषहों की सत्ता को स्वीकार किया है । सूक्ष्मसंपराय और छद्मस्थवीतराग अर्थात् बारहवें गुणस्थान में चौदह परिषह की सत्ता को माना है, किन्तु बादरसम्पराय गुणस्थान तक सभी परिषहों की सत्ता स्वीकार की है । उसके पश्चात् चारों ध्यानों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि किस गुणस्थानवी जीव को किस प्रकार के ध्यान की सम्भावना रहती है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक आर्तध्यान की सम्भावना मानी जाती है। इसी प्रकार देशविरत गुणस्थान तक रौद्रध्यान की सम्भावना को स्वीकार किया गया है । धर्मध्यान अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक सम्भव हो सकता है । इसीप्रकार शुक्लध्यान की सम्भावना भी उपशान्तमोह से लेकर अयोगी केवली अवस्था तक रहती है । ज्ञातव्य है कि यहाँ पर भी विद्यानन्दजी ने गुणस्थानों का कोई विस्तृत विवरण नहीं किया है, किन्तु मूल टीका में गुणस्थानों के नाम निर्देश होने से हम इतना तो अवश्य ही कह सकते है कि विद्यानन्दजी गुणस्थान की अवधारणा से स्पष्ट रूप से परिचित थे । यद्यपि श्लोकवार्तिक में उन्होंने यत्र-तत्र गुणस्थान सिद्वान्त का निर्देश किया है, किन्तु कहीं भी उसकी विस्तृत विवेचना नहीं की । मात्र नवें अध्याय के प्रारम्भ में ही उन्होंने चौदह गुणस्थानों और उनके लक्षणों का निर्देश किया है । हम यह तो कह सकते है कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षित विवेचना नहीं हो पाई है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता है कि उनके सामने गुणस्थान सिद्धान्त अनुपस्थित था । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में उपलब्ध गुणस्थानों के विवरण से केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विद्यानन्दजी की रुचि इस सिद्धान्त के प्रति अल्प रही है।
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