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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{266}
इसी क्रम में जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेश संक्रमण की चर्चा के प्रसंग में गाथा क्रमांक ६५ में देशविरति और विरति का उल्लेख पाया जाता है।
इसी प्रकार उदीरणाकरण के अर्न्तगत गाथा क्रमांक १८ में क्षीणराग क्षपक गाथा क्रमांक १६ में अप्रमत्त, गाथा क्रमांक २० में प्रमत्त और अपूर्वकरण आदि अवस्थाओं में कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है । इसी प्रसंग में २२, २३ और २४ वीं गाथा में मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र, अविरत, विरत एवं अनिवृत्तिकरण में उदीरणा सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है। आगे गाथा क्रमांक ५२ में यह बताया गया है कि देशविरत और सर्वविरत में सौभाग्य आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र की उदीरणा सम्भव होती है । पुनः इसी उदीरणाकरण की ८५वीं गाथा में देशविरत तिर्यंच प्रायोग्य प्रकतियों की चर्चा की गई है और गाथा क्रमांक ८७ में केवली का उल्लेख हुआ है।
अग्रिम उपशमनाकरण की ३४ वीं गाथा में यह बताया गया है कि प्रमत्त और अप्रमत्त हजारों बार चारित्रमोह की उपशमना करने के लिए तीन करण करते हैं । पुनः इसी उपशमनाकरण की गाथा क्रमांक ६१ में क्षपक और उपशमक किस प्रकार से स्थितिबन्ध करते हैं, इसका उल्लेख है । उपशमनाकरण में निम्न आठ द्वार है :- (१) सम्यक्त्व की उत्पत्ति (२) देशविरति (३) सर्वविरति की प्राप्ति (४) अनन्तानुबन्धी कषाय की वियोजना (५) दर्शनमोह की देशोपशमना (६) दर्शनमोह की उपशमना (७) चारित्रमोह की उपशमना और (८) चारित्रमोह की देशोपशमना । इन आठ द्वारों से हमें गुणश्रेणी अथवा गुणस्थानों की अपेक्षा से विशेष सूचनाएं प्राप्त होती हैं। यद्यपि इन सूचनाओं को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित माना जाय अथवा गुणश्रेणी से सम्बन्धित माना जाय यह अविचारणीय अवश्य है । इन आठ द्वारों के नामकरण से ऐसा लगता है कि इन अवस्थाओं का सम्बन्ध गुणस्थान की अपेक्षा गुणश्रेणियों से अधिक निकट रहा है । उपशमनाकरण की चार गाथाएं (क्रमांक - २४ से २६) कषायप्राभृत की चार गाथाओं (क्रमांक - १००, १०३, १०४ एवं १०५) से मिलती हैं । जैसा कि हमने पूर्व में चर्चा की है कि कषायप्राभृत गुणस्थान सिद्धान्त की पूर्व भूमिका के रूप में ही है । वह गुणश्रेणियों से गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की एक मध्यवर्ती अवस्था से सम्बन्धित प्रतीत होता है । यही स्थिति लगभग कर्मप्रकृति के उपशमनाकरण की है । किन्तु इस ग्रन्थ के अन्त में उपर्युक्त आठ करणों की विवेचना के पश्चात् कर्मप्रकृतियों की उदय अवस्था और सत्ता अवस्था की चर्चा हुई है।
आठ करणों की चर्चा के पश्चात् कर्मप्रकृतियों के उदय की चर्चा के प्रसंग में निम्न ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख हुआ है - (१) सम्यक्त्व की उत्पत्ति (२) श्रावक (३) विरत (४) विसंयोजना (५) दर्शनमोह क्षपक (६) कषाय उपशमक (७) कषाय उपशान्त (८) क्षपक (E) क्षीणमोह तथा द्विविधजिन अर्थात् (१०) सयोगीकेवली (११) अयोगीकेवली इन ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि गुणश्रेणियों की इस चर्चा को विद्वानों ने गुणस्थान की अवधारणा के विकास की पूर्व अवस्था माना है। कर्मप्रकृति की यह विशेषता है कि इसमें ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा है, जबकि तत्त्वार्थ और आचारांग नियुक्ति में मात्र दस गुणश्रेणियों का उल्लेख है । सत्ता की चर्चा के प्रसंग में आचार्य ने विविध गुणस्थानों में सत्ता में अवस्थित कर्मप्रकृतियों का विवेचन किया है। सत्ता सम्बन्धी गाथा क्रमांक एक से लेकर उनपचास तक विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की सत्ता को लेकर जो विवेचन उपलब्ध होता है वह विवेचन देवेन्द्रसूरि के नवीन कर्मग्रन्थों में इसीप्रकार मिलता है । अतः इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हम नवीन कर्मग्रन्थों के सन्दर्भ में ही करेंगे । किन्तु इन उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य शिवशर्मसूरि का कर्मप्रकृति नामक यह ग्रन्थ इन तथ्यों को सुस्पष्ट कर देता है कि उनके समक्ष गुणश्रेणी और गुणस्थान दोनों ही अवधारणाएं स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं।
इस प्रकार शिवशर्मसूरि प्रणीत कर्मप्रकृति नामक इस ग्रन्थ में जहाँ ग्यारह गुणश्रेणियों का एकसाथ उल्लेख उपलब्ध है । वहाँ चौदह गुणस्थानों के एक साथ सुव्यवस्थित विवेचन का प्रायः अभाव है। किन्तु इसमें यथाप्रसंग मिथ्यात्व एवं सास्वादन गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक की सभी चौदह अवस्थाओं का निर्देश उपलब्ध होता है । गुणस्थान सम्बन्धी सभी अवस्थाओं का निर्देश उपलब्ध होने पर हम यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं कि कर्मप्रकृति के कर्ता शिवशर्मसूरि ने चाहे
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