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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{267} इस ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का प्रयोग न किया हो और चाहे गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का यथाक्रम एक पान पर उल्लेख न किया हो, किन्तु वे गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित अवश्य रहे है और उन्होंने यथास्थान गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं का उल्लेख किया है । श्वेताम्बर आगम साहित्य में हमें सास्वादन को छोड़कर गुणस्थानों के समरूप सभी अवस्थाओं के उल्लेख मिल जाते हैं, किन्तु उनमें गुणस्थान शब्द तथा सास्वादन अवस्था की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, जबकि कर्मप्रकृति में चाहे गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख न हो, किन्तु सास्वादन का उल्लेख होने से कर्मप्रकृति के कर्ता शिवशर्मसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित रहे हैं, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंका सम्भव नहीं है । कर्मप्रकृति पर जो व्याख्या साहित्य उपलब्ध है उनमें एक चूर्णि और दो संस्कृत टीकाएं हैं । चूर्णिकार का नाम स्पष्टरूप से तो उल्लेखित नहीं है, किन्तु संभावना है कि कर्मप्रकृति के चूर्णिकार जिनदासगणि रहे हैं । उनका काल लगभग सातवीं शताब्दी है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति का रचनाकाल पांचवीं और छठी शताब्दी के मध्य ही होना चाहिए, क्योंकि पांचवीं शताब्दी के पूर्व गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, जबकि शिवशर्मसूरि की इस कृति में गुणस्थान का स्पष्ट उल्लेख है । अतः इसका रचनाकाल पांचवीं शती के उत्तरार्द्ध या छठी शताब्दी के पूवार्द्ध के लगभग ही मानना होगा । कर्मप्रकृति पर जो संस्कृत टीकाएं उपलब्ध हैं, उनमें मलयगिरि कृत वृत्ति है और दूसरी यशोविजयगणि कृत टीका । मलयगिरि कृत वृत्ति का काल लगभग तेरहवीं शताब्दी है । यशोविजयगणि कृत टीका का काल अठारहवीं शताब्दी है । यह स्पष्ट है कि चूर्णिकार, वृत्तिकार और टीकाकार के समय गुणस्थान की सुस्पष्ट अवधारणा उपस्थित थी । अतः उनके द्वारा किए गए गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन उन्होंने इस सम्बन्ध में जो विवेचनाएं प्रस्तत की हैं, वे अध्यायों में पूर्व उल्लेखित विवेचन से आगे कोई नवीन तथ्यों को प्रस्तुत नहीं करती है। अतः यहाँ इस चर्चा को विराम देना ही उचित होगा।। उपसंहार के रूप में हम केवल यही कहना चाहेंगे कि शिवशर्मसूरि कृत कर्मप्रकृति में कर्म सम्बन्धी आठ करण और उदय एवं सत्ता इन दो अवस्थाओं का उल्लेख उपलब्ध होता है । उनमें उपशमनाकरण तथा सत्ता के सम्बन्ध में गुणस्थान सम्बन्धी प्रारंभिक चर्चा अवश्य उपलब्ध होती है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में शिवशर्मसूरि कृत कर्मप्रकृति के पश्चात् अन्य जो महत्वपूर्ण कर्म विषयक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वह आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर कृत पंचसंग्रह हैं । अग्रिम पृष्ठों में हम पंचसंग्रह में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा करेंगे। त्रचन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान पंचसंग्रह का सामान्य परिचय पंचसंग्रह आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर कृत जैन कर्मसाहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यहाँ सर्वप्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस ग्रन्थ का नाम पंचसंग्रह क्यों दिया गया है? पंचसंग्रह नाम से यह तो स्पष्ट होता है कि इसमें किन्हीं पांच ग्रन्थों का संकलन किया गया होगा। ये पाँच ग्रन्थ कौन-से थे? इस सम्बन्ध में मूल ग्रन्थ से पूरी जानकारी तो नहीं मिलती है, किन्तु पंचसंग्रह के प्रारम्भ की दूसरी गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें शतकादि पाँच ग्रन्थों का संक्षेप में यथायोग्य समावेश किया गया है, किन्तु इसके साथ ही साथ इस गाथा से यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार ने उन पाँच ग्रन्थों को संक्षिप्त करके पाँच द्वारों में इस ग्रन्थ की रचना की है । इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम पंचसंग्रह रखा गया है । ज्ञातव्य है कि पंचसंग्रह के नाम से श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों ही परम्परा में ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रह के नाम से अज्ञात आचार्य कृत प्राकृत भाषा में निबद्ध एक ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है, जिसकी गाथा संख्या १३२४ है। इसी प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर निर्मित दिगम्बर आचार्य अमितगति का पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है। इसका रचना काल संवत् १०७३ तक है। इसमें १४५६ श्लोक हैं। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में लगभग विक्रम की १७ वीं शताब्दी में निर्मित 'श्रीपालसुतड्डा' का भी संस्कृत भाषा में निर्मित एक पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ उपलब्ध है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रर्षि महत्तर के अतिरिक्त पंचसंग्रह नाम का कोई अन्य ग्रन्थ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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