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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{268} उपलब्ध नहीं है। चन्द्रर्षि के इस पंचसंग्रह की दूसरी गाथा से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि इसमें शतकादि पाँच ग्रन्थों का समावेश हुआ है । गाथा से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चन्द्रर्षि महत्तर ने शतकादि जिन पाँच ग्रन्थों का संग्रह इनमें किया है, उनका यथावत् अवतरण नहीं किया, बल्कि उन्हें संक्षिप्त करके पाँच द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, अतः पंचसंग्रह की द्वितीय गाथा के आधार पर हम इतना ही कह सकते है कि पंचसंग्रह शतकादि पाँच ग्रन्थों के आधार पर बना हुआ एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है, फिर भी यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि शतक के अतिरिक्त अन्य चार ग्रन्थ कौन-से थे? इन ग्रन्थों के सन्दर्भ में पंचसंग्रह की स्वोपज्ञ वृत्ति से भी कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं पड़ता है। सर्वप्रथम आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में इन पाँच ग्रन्थों के नाम का स्पष्ट उल्लेख किया है। उनके अनुसार ये पाँच ग्रन्थ है - (१) शतक (२) सप्ततिका (३) कषायप्रामृत (४) सत्कर्म और (५) कर्मप्रकृति। पंचसंग्रह की प्रथम गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी मंगलाचरण की शैली कर्मप्रकृति के अनुरूप है। कर्मसिद्धान्त का विवेचन करने के कारण इस ग्रन्थ का आधार कर्म सम्बन्धी साहित्य ही रहा होगा, अतः आचार्य मलयगिरि के इस कथन में अविश्वास करने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता है कि पंचसंग्रह के आधारभूत ग्रन्थ शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति रहे हैं। आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में कषायप्राभृत को छोड़कर शेष चार ग्रन्थों का प्रमाण रूप में उल्लेख भी किया है। इसमें ऐसा लगता है कि आचार्य मलयगिरि के समक्ष कषायप्राभृत नाम का ग्रन्थ नहीं रहा होगा, किन्तु शेष चार ग्रन्थ उनके काल में रहे होंगे। इन चार ग्रंथों में भी वर्तमान में शतक, सप्ततिका और कर्मप्रकृति - ये तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं और इनकी विषयवस्तु को देखकर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ये तीनों ग्रन्थ पंचसंग्रह के आधारभूत रहे हों।
दिगम्बर परम्परा में जो प्राकृत पंचसंग्रह पाया जाता है, उसमें कषायप्राभृत का उल्लेख भी हैं । दिगम्बर परम्परा में कषायप्राभृत के नाम से दो ग्रन्थ उपलब्ध होते है। एक कषायप्राभृत के नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ है, दूसरा प्राकृत पंचसंग्रह के अधीन कषायप्राभूत ग्रन्थ है । दोनों की गाथा आदि में बहुत अन्तर है। आज यह कहना कठिन है कि आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर ने किस कषायप्रामृत को आधार बनाया होगा। डॉ. सागरमल जैन ने दिगम्बर परम्परा के प्राचीन कषायप्रामृत को यापनीय ग्रन्थ माना है। यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा में अनेक ग्रन्थ समान रूप से प्रचलित हैं, अतः यह सम्भावना हो सकती है कि चन्द्रर्षि महत्तर ने दिगम्बर परम्परा में उपलब्ध दोनों कषायप्राभृत में से किसी एक को ही आधार बनाया होगा। दूसरा जो अनुपलब्ध ग्रन्थ सत्कर्म है, उस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन की यह कल्पना है कि वह सत्कर्म ग्रन्थ या तो यापनीय परम्परा के षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड रहा हो अथवा उसी के आधारभूत जीवसमास का सत्पद्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार रहा हो। तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर साध्वी विद्युत्प्रभाश्रीजी एवं डॉ. सागरमल जैन ने जीवसमास और पंचसंग्रह की अनेक गाथाओं की समरूपता को अपनी जीवसमास की भूमिका में स्पष्ट किया है। इस गाथा साम्य से यह सिद्ध होता है कि चन्द्रर्षि महत्तर के सामने सत्कर्म नामक ग्रन्थ रहा होगा; जिसकी विषयवस्तु या तो यापनीय ग्रन्थ षटखण्डागम के प्रथम खण्ड या जीवसमास के प्रथम द्वार के समरूप होगी। विशेष प्रमाणों के अभाव में कुछ अधिक कहना सम्भव नहीं है, फिर भी मलयगिरि का यह कथन कि पंचसंग्रह के आधार पर शतक, सप्ततिका, कषायप्रामृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति - ये पाँच ग्रन्थ रहे हैं, समीचीन लगता है। ___ पंचसंग्रह के कर्ता पंचसंग्रह के कर्ता चन्द्रर्षि महत्तर माने गए हैं। उन्होंने पंचसंग्रह की अन्तिम प्रशस्ति गाथा में केवल इतना कहा है कि श्रुतदेवी की कृपा से चन्द्रर्षि ने अपनी स्वबुद्धि से संक्षेप में इस प्रकरण ग्रन्थ की रचना की।
सुयदेविपसायओ पगरणमेयं समासओ भणियं। __समयाओं चंदरिसिणा समइविभवाणुसारेण ।।
इसमें इतना तो निश्चित हो जाता है कि पंचसंग्रह के कर्ता चन्द्रर्षि हैं। मूल ग्रंथ में उनके इस नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई सूचना नहीं है। पंचसंग्रह की स्वोपज्ञ वृत्ति में उन्होंने अपने नाम के अतिरिक्त केवल अपने गुरु के नाम का उल्लेख किया है। उसमें मात्र यह बताया है कि वे पार्श्वर्षि के शिष्य हैं। इसप्रकार मूल ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति, दोनों से केवल इतना ही
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