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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{269) ज्ञात होता है कि पार्श्वर्षि के शिष्य चन्द्रर्षि इस ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका के कर्ता है। इसके अतिरिक्त उनके सम्बन्ध में अन्य चना प्राप्त नहीं होती कि वे किस गण, कुल, शाखा या गच्छ के थे। आचार्य मलयगिरि ने भी 'चन्द्रर्षिनाम्नासाधुना' - ऐसा उल्लेख किया है, इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे मुनि थे । वर्तमान में उनके नाम के साथ प्रचलित महत्तर पद के सम्बन्ध में भी हमें कोई आधारभूत जानकारी प्राप्त नहीं होती है। उनके नाम के साथ ऋषि नामान्त पद होने से हम इतना ही कह सकते हैं कि गर्गर्षि, सिद्धर्षि आदि की परम्परा से उनका कोई सम्बन्ध रहा होगा, फिर भी निर्णायक प्रमाण के अभाव में अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं है। ग्रन्थ के विषय को देखते हुए और जिन ग्रन्थों के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, उन ग्रन्थों की विषयवस्तु का ध्यान रखते हुए, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि वे कर्मसाहित्य के गम्भीर ज्ञाता थे। मूल ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति से यह भी निश्चित हो जाता है कि वे प्राकत और संस्कृत भाषा के गम्भीर विद्वान रहे होंगे। इन सूचनाओं के अतिरिक्त हम उनके सम्बन्ध में विस्तार से कुछ कहने में असमर्थ हैं। ग्रन्थ का रचनाकाल - ग्रन्थकार ने न तो मूल ग्रंथ में और न उसकी टीका में ग्रन्थ के रचनाकाल का कोई उल्लेख किया है, अतः ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में हम उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर केवल अनुमान ही कर सकते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में गर्ग ऋषि, सिद्ध ऋषि आदि नामान्त पद नवीं शताब्दी में प्रचलित रहे हैं। सिद्धर्षि का काल विक्रम की नवीं शताब्दी माना जाता है। इस आधार पर हम यह कल्पना कर सकते है कि पार्श्वर्षि के शिष्य चन्द्रर्षि भी इसी काल के आसपास अर्थात् विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी में कभी हुए हैं। पंचसंग्रह और उसकी स्वोपज्ञ टीका के अतिरिक्त चन्द्रर्षि की अन्य कोई कृति भी उपलब्ध नहीं होती है, जिसके आधार पर हम उनके काल का निर्णय कर सके। पंचसंग्रह, शतकादि जिन पाँच ग्रन्थों के आधार पर निर्मित हुआ है, उससे इतना निश्चित हो जाता है कि इस ग्रन्थ की रचना शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति के बाद हुई है । शिवशर्मसूरि का काल विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं-छठी शताब्दी के आसपास माना है, अतः इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ पाँचवीं शताब्दी के पश्चात् बना होगा। पंचसंग्रह में गुणस्थान सिद्धान्त का जितना विकसित स्वरूप उपलब्ध होता है उससे भी हम इस निर्णय पर पहुँच सकते है कि यह ग्रन्थ पाँचवीं शताब्दी के बाद ही बना होगा। गुणस्थान सिद्धान्त की विकसित चर्चा हमें सर्वप्रथम जीवसमास, षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में मिलती है। डॉ. सागरमल जैन ने इन ग्रन्थों का काल लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी माना है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि पंचसंग्रह की रचना छठी शताब्दी के बाद ही हुई होगी। कुछ विद्वानों ने सप्ततिका और उसकी प्राकृत वृत्ति का कर्ता चन्द्रर्षि महत्तर को बताया है। वृत्तियाँ प्रायः भाष्य और चूर्णि के बाद ही लिखी गई हैं। भाष्यों और चूर्णियों का काल क्रमशः छठी और सातवीं शताब्दी माना जा सकता है, अतः पंचसंग्रह की रचना सातवीं शताब्दी के बाद हुई है, ऐसा माना जाता है। यह पंचसंग्रह के रचना की उत्तर सीमा है। पंचसंग्रह पर स्वोपज्ञ वृत्ति के अतिरिक्त मलयगिरि की वृत्ति भी मिलती है। मलयगिरि का काल विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी माना गया है, अतः पंचसंग्रह के रचना काल को विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी से आगे नहीं ले जा सकते हैं । इन आधारों पर हम इतना ही कह सकते है कि पंचसंग्रह, विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी में कभी निर्मित हुआ होगा। कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त की जो गम्भीर विवेचना हमें पंचसंग्रह में मिलती है, वह दिगम्बर परम्परा के पंचसंग्रह और गोम्मटसार की स्मृति करा देती है। ये ग्रन्थ भी लगभग दसवीं शताब्दी के पश्चात् के हैं, अतः पंचसंग्रह का काल नवीं-दसवीं शताब्दी मानने में कोई बाधा नहीं जाती पंचसंग्रह की विषयवस्तु - जैसा कि हमने पूर्व में बताया पंचसंग्रह सामान्य रूप से श्वेताम्बर परम्परा में विकसित कर्मसाहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में (१) योगोपयोग मार्गणा (२) बन्धक (३) बन्धव्य (४) बन्धहेतु और (५) बन्धविधि, ऐसे पाँच विभाग है जिनका सम्बन्ध कर्मसिद्धान्त से रहा हुआ है। कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त परस्पर सापेक्ष है, अतः इस ग्रन्थ में गुणस्थानों का भी गम्भीर विवेचन उपलब्ध होता है। इसमें अनेक द्वारों में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की गई है, अतः गुणस्थान सिद्धान्त के समीक्षात्मक अध्ययन के लिए यह एक आधारभूत ग्रन्थ है। अग्रिम पृष्ठों में यह देखने का प्रयास करेंगे कि पंचसंग्रह में गुणस्थानों की किस रूप में चर्चा हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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