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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{270} पंचसंग्रह मूलतः कर्मसिद्धान्त का ग्रन्थ है । इसके निम्न पाँच विभाग हैं (१) योगोपयोग मार्गणा (२) बन्धक (३) बन्धव्य (४) बन्धहेतु और (५) बन्धविधि। इन विभागों का मुख्य सम्बन्ध तो कर्मसिद्धान्त के साथ ही है, किन्तु कर्मसिद्धान्त का विवेचन गुणस्थानों के विवेचन का सहगामी है, अतः प्रस्तुत कृति में प्रत्येक प्रकरण में कहीं न कहीं गुणस्थानों की चर्चा है। श्वेताम्बर परम्परा के कर्मसाहित्य में गुणस्थानों की जितनी गम्भीर चर्चा पंचसंग्रह में मिलती है, उतनी गम्भीर चर्चा हमारी जानकारी में अन्यत्र नहीं है। पंचसंग्रह के प्रथम योगोपयोग द्वार में सर्वप्रथम पन्द्रह योगों की चर्चा करते हुए, किस गुणस्थान में कितने योग होते हैं, इसका उल्लेख प्रथम द्वार की १६ वीं गाथा में किया गया है। वहाँ कहा गया है कि मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में आहारक द्विक को छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं। मिश्र गुणस्थान में दस योग, देशविरति गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ग्यारह योग, अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक के पाँच गुणस्थान में नौ योग, सयोगीकेवली गुणस्थान में सात योग होते हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का अभाव होता है, इसप्रकार यहाँ चौदह गुणस्थानों में योग का अवतरण किया गया है। उसके पश्चात् उपयोग की चर्चा करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव को पाँच उपयोग होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरतसम्यग्दृष्टि जीव को छः उपयोग होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव को तीन ज्ञान और तीन दर्शन के मिश्र रूप छः उपयोग होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक तीन ज्ञान और तीन दर्शन ऐसे छः उपयोग होते हैं, किन्तु मनःपर्यवज्ञान होने पर किसी को सात उपयोग भी हो सकते हैं । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव को केवलज्ञान और केवलदर्शन-ये दो ही उपयोग होते हैं । इसप्रकार प्रथम द्वार में योग और उपयोग की अपेक्षा से गुणस्थानों पर चिन्तन किया गया है । पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार में अनेक अपेक्षाओं से गुणस्थानों की चर्चा की है । सर्वप्रथम गाथा क्रमांक - ६ में कालिक अस्तित्व की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा की है। उसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतिसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, सयोगीकेवली - ये छः गुणस्थान सभी कालों में होते हैं, किन्तु शेष सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और अयोगीकेवली-ऐसे कुल आठ गुणस्थान होते हैं और कभी नहीं होते हैं। ___गाथा क्रमांक - ६ में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या को लेकर विचार किया गया है । इसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त है। उसके पश्चात् सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण अर्थात् असंख्यात होते हैं । शेष प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगीकेवली तक के गुणस्थानवी जीव संख्यात ही होते हैं।' इसी द्वितीय द्वार में क्षेत्र की अपेक्षा से भी गुणस्थानों का अवतरण किया है। उसमें कहा गया है कि सास्वादन गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव, लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि और समुद्घात की अपेक्षा से सयोगीकेवली सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। पुनः इसी द्वितीय द्वार की २६ से लेकर ३३ तक की गाथाओं में इस बात का विवेचन उपलब्ध हुआ है कि किस गुणस्थानवी जीव, लोक के कितने क्षेत्र का स्पर्शन करता है। यहाँ सर्व जीवों की अपेक्षा से चर्चा करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव और अयोगीकेवली, समुद्घात की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। इसे पूर्व में भी स्पष्ट किया गया है। सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव यदि छठी नरक से आयुष्य पूर्ण कर मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, तो वे चौदह रज्जु लोक में से पाँच रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं। यदि वे लोकान्त के निष्कुटों में तिथंच रूप से उत्पन्न होते हैं, तो कुल बारह रज्जु की स्पर्शना करते हैं। मिश्र गुणस्थानवी जीव मरण को प्राप्त नहीं होते हैं, इसीलिए वे स्वक्षेत्र का स्पर्श करके ही रहे हुए हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बारह रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना कर सकता है, क्योंकि वह पूर्व बद्धायु की अपेक्षा से छठी नरक तक और ऊपर में अनुत्तर विमान तक उत्पन्न हो सकता है। देशविरत मनुष्य बारहवें देवलोक तक उत्पन्न Jain Education Intemational nternational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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