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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{271} होते हैं, अतः वे छः रज्जु की स्पर्शना करते हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती उपशामक और उपशान्त जीव उर्ध्वगति ही करते हैं, अतः वे अधिकतम सात रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं । क्षीणमोह गणस्थानवर्ती जीव भी मरण को प्राप्त नहीं होते हैं, इसीलिए वे भी मात्र स्वक्षेत्र का स्पर्श करते हैं । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सिद्धि को ही प्राप्त होते हैं, किन्तु सिद्ध अवस्था का विचार गुणस्थानों में नहीं किया होने से वे भी स्वक्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं, ऐसा माना जाता है। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की इकतालीस से लेकर पैंतालीस तक की गाथाओं में एक जीव की अपेक्षा से गुणस्थानों में काल की विचारणा की गई है। इसमें यह बताया गया है कि एक जीव की अपेक्षा से किस गुणस्थान का कितना काल होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा से जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, भव्य की अपेक्षा से अनादि सांत और अभव्य की अपेक्षा से अनादि अनन्त काल है। सास्वादन गुणस्थान का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलिका है। मिश्र गुणस्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अन्तर्मुहूर्त है। औपशमिक सम्यक्त्व का काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही माना है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल अनन्त माना गया है, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद जाता नहीं है। वेदक सम्यक्त्व का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम कुछ अधिक, तेंतीस सागरोपम होता है। देशविरति गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम कुछ कम, एक पूर्वकोटि वर्ष माना गया है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल सामान्य की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त माना गया है, किन्तु अगर दोनों गुणस्थानों का एक साथ ग्रहण करें, तो अधिकतम देशोन पूर्व कोटि वर्ष हो जाता है। अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त माना गया है। सयोगीकेवली गुणस्थान का काल भी कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष का माना गया है, किन्तु अयोगीकेवली गुणस्थान का काल पाँच हृस्व स्वरों के उच्चारणकाल के समरूप माना गया है। पुनः अनेक जीवों की अपेक्षा से काल की चर्चा करते हुए पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की बावनवीं और तिरपनवीं गाथा में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सर्व जीवों की अपेक्षा से विचार करें, तो वे सभी कालों में पाए जाते हैं। सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप होता है। यह काल इन गुणस्थानों की निरंतरता की अपेक्षा से समझना चाहिए। उसके बाद विरह अवश्य होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ये चार गुणस्थान सर्व जीवों की अपेक्षा से सभी कालों में होते हैं। अपूर्वकरण से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल सात समय अधिक अन्तर्मुहूर्त होता है। इसके पश्चात् इन गुणस्थानवी जीवों का विरह अवश्य माना गया है। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव सभी कालों में होते हैं। अयोगीकेवली गणस्थानवी जीव अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं। अतः इनका अधिकतम निरन्तर काल सर्व जीव की अपेक्षा से छः मास तक हो सकता है। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ६१, ६२ तथा ६३ में यह बताया गया है कि किन गुणस्थानों में कितने समय का अन्तराल होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान का सर्व जीव आश्रयी कोई अन्तरकाल नहीं है, किन्तु एक जीव आश्रयी मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तरकाल एक सौ बत्तीस सागरोपम होता है, अर्थात् कोई जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है और वहाँ वह अधिकतम छासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व दशा में रहकर मिश्रदृष्टि गुणस्थान का स्पर्श कर पुनः छासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व में रहता है। इसके पश्चात् या तो मुक्त होता है या फिर मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। इसी अपेक्षा से यह कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान का अधिकतम अन्तरकाल १३२ सागरोपम है। सास्वादन गुणस्थान का अन्तरकाल सर्वजीवों की अपेक्षा से जघन्य से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग बताया गया है। शेष गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल एक सौ बत्तीस सागरोपम और अन्य गुणस्थानों का कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन माना गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से सास्वादन और मिश्र गुणस्थान का काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग ही माना गया है। उपशमक अर्थात् उपशमश्रेणी से चढ़नेवाले अपूर्वकरण से लेकर उपशान्तमोह तक के गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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