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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
पंचम अध्याय ........
...{272} पृथक्त्व और क्षपकश्रेणी से चढ़नेवाले अपूर्वकरण से लेकर क्षीणमोह तक के गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल छः मास माना गया है । इसी प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति और प्रमत्तसंयत- इन गुणस्थानों का अन्तरकाल क्रमशः सात, चौदह और पन्द्रह दिन माना गया है। अयोगीकेवली गुणस्थान का अन्तरकाल छः मास माना गया है ।
पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की चौसठवीं गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा भावों का अवतरण किया गया है। इसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और मिश्र गुणस्थानवर्ती जीवों में सामान्यतया क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिकऐसे तीन भाव पाए जाते है। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- इन चार गुणस्थानों में सामान्यतया तीन और अधिक हो, तो चार भाव पाए जाते हैं। तीन भाव हों तो औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक होते हैं । चार भाव होने पर औदयिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और क्षायिक अथवा औदयिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और औपशमिक - ऐसे चार भाव होते हैं। ज्ञातव्य है कि क्षायिक और औपशमिक दोनों में से एक समय में एक ही भाव होता है, दोनों नहीं । उपशमक में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों में उपशमश्रेणी से आरोहण करने पर चार भाव ही होते हैं । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, और क्षीणमोह - इन चार गुणस्थानों में क्षपकश्रेणी से आरोहण करने वाले में चार ही भाव होते हैं, किन्तु दोनों श्रेणियों को मिलाकर सामान्य रूप से कथन करने पर पाँच भाव माने जा सकते हैं । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जो क्षपक श्रेणी से आरोहण करेगा उसे औपशमिक भाव और जो उपशम श्रेणी से आरोहण करेगा उसे क्षायिक भाव नहीं होगा, किन्तु षट्खण्डागम में यह माना गया है कि उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले में चारित्र की अपेक्षा औपशमिक भाव होता है। सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायिक भाव भी रह सकता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भी उपशम श्रेणी से आरोहण कर सकता है। उसकी अपेक्षा भी उपशम श्रेणी से आरोहण करने वालों में पाँच भाव हो सकते हैं। शेष सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में औदयिक, क्षायिक और पारिणामिक ऐसे तीन भाव ही होते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव नहीं होते हैं ।
पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ८० और ८१ में गुणस्थानों में अल्प - बहुत्व का विवेचन किया गया है। उसमें कहा गया है कि उपशामक अर्थात् उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा क्षपक श्रेणी से आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है। पुनः क्षपकश्रेणी से क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीवों की अपेक्षा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यात गुणा अधिक होती है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है । अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा देशविरति गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। उनकी अपेक्षा सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। मिश्र गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या अनन्तगुणा अधिक होती है। इसके पश्चात् पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की ८३ वीं गाथा में मात्र गुणस्थानों के नामों का विवेचन किया गया है।
पंचसंग्रह के तृतीय द्वार में बन्धनेवाली कर्म प्रकृतियों के रसबन्ध आदि का विवेचन किया गया है। इस द्वार में गुणस्थानों का अवतरण प्रायः अल्प ही देखा जाता है। हमारी जानकारी में पंचसंग्रह के तृतीय द्वार की पचासवीं गाथा में किन गुणस्थानों में एक स्थानीय रसबन्ध नहीं होता है, इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव को केवलीद्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का एक स्थानीय रसबन्ध नहीं होता है। अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती
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