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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{273} जीवों को हास्य रति भय और जुगुप्सा - इन चार पाप प्रकृतियों का रसबन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार क्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव को सुभगादि पुण्य प्रकृतियों का एक स्थानीय रसबन्ध नहीं होता है। ऐसा क्यों नहीं होता है, इस प्रश्न का उत्तर इक्यावनवीं गाथा में दिया गया है। उसमें कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में कषाय की स्थिति जल में खींची गई रेखा के समान अत्यल्प होती है। इस गुणस्थानवी जीव को केवलीद्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का एक स्थानीय रसबन्ध सम्भव नहीं होता है, क्योंकि केवली द्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण-ये दोनों सर्वघाती कर्मों की प्रकृतियाँ हैं, अतः इनका एक स्थानीय रसबन्ध सम्भव नहीं होता है । इसीप्रकार अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव को अपने अतिविशुद्ध आत्म-परिणामों के कारण हास्य रति भय और जुगुप्सा इन चार पाप प्रकृतियों का रसबन्ध नहीं होता है । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम अति संक्लिष्ट होने के कारण उनको सुभग आदि पुण्य प्रकृतियों का रसबन्ध सम्भव नहीं होता है । बन्ध हेतुओं का गुणस्थानों में अवतरण : पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार में गाथा क्रमांक १, ४ एवं ५ में बन्धहेतुओं की चर्चा की गई है । इसकी प्रथम गाथा में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ऐसे चार बन्धहेतुओं का उल्लेख किया है। ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में पाँच बन्धहेतुओं की चर्चा वहाँ मिलती है । वहाँ प्रमाद को अलग से बन्धहेतु के रूप में उल्लेखित किया गया है । इसप्रकार बन्धहेतुओं की संख्या को लेकर पंचसंग्रह का दृष्टिकोण तत्त्वार्थसूत्र से भिन्न है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुंदकुंद ने भी चार बन्धहेतुओं का उल्लेख किया है। लगता है कि चार बन्धहेतु मानने की कोई प्राचीन आगमिक परम्परा रही होगी। जिसका अनुसरण पंचसंग्रह में किया गया है। पंचसंग्रह में इन चार बन्धहेतुओं के प्रकारों का भी उल्लेख हुआ है। मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के बारह, कषाय के पच्चीस और योग के पन्द्रह भेदों की चर्चा की गई है। यहाँ पंचसंग्रहकार ने इन बन्धहेतुओं का गुणस्थानों में अवतरण किया है । पंचसंग्रह के अनुसार मूल बन्धहेतु चार और उत्तर बन्धहेतु सत्तावन माने गए हैं । मूल चार बन्धहेतुओं का गुणस्थानों में अवतरण करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में चारों ही बन्धहेतु होते हैं। सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरति गुणस्थान में तीन बन्धहेतु होते हैं। प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय-इन पाँच गुणस्थानों में दो बन्धहेतु होते हैं । शेष उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली -इन गुणस्थानों में एक बन्धहेतु अर्थात् योग होता है । अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी बन्ध हेतु नहीं होता है । पुनः बन्धहेतुओं के उत्तरभेदों की अपेक्षा से चर्चा करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आहारकद्विक छोड़कर शेष पचपन बन्धहेतु बताए गए हैं । सास्वादन गुणस्थान में आहारकद्विक और मिथ्यात्व के पाँच प्रकारों को छोड़कर शेष पचास बन्धहेतु माने गए हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उपर्युक्त पचास में से औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, कार्मण काययोग और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ऐसे सात बन्धहेतुओं का अभाव हो जाने से तेंतालीस बन्धहेतु होते हैं । तृतीय गुणस्थान में मरण न होने के कारण ही कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रियमिश्र-इन तीन काययोगों का अभाव कहा गया है। चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में इन तीनों सहित छियालीस बन्धहेतु माने गए हैं। देशविरति नामक पंचम गुणस्थान में उनचालीस ही बन्धहेतु माने गए हैं। इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, क्योंकि मृत्यु होने पर यह गुणस्थान नहीं रहता है, अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के तेंतालीस बन्धहेतुओं में से अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का अभाव होने पर उनचालीस बन्धहेतु होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में अविरति के ग्यारह भेद और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क-ऐसे पन्द्रह भेद कम करने पर कुल चौबीस बन्धहेतु होते हैं, किन्तु इस गुणस्थान में आहारक द्विक की संभावना होती है। चौबीस और दो, ऐसे छब्बीस बन्धहेतु माने गए हैं। अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में पुनः आहारक द्विक का अभाव होने से चौबीस बन्धहेतु होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में आहारक काययोग और वैक्रिय काययोग का अभाव होने पर बाईस बन्धहेतु होते हैं। अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में हास्यादि षट्क का उदय-विच्छेद रहता है, अतः बाईस में से छः कम करने पर सोलह बन्धहेतु रहते हैं। सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में संज्वलन कषाय त्रिक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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