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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. पंचम अध्याय........{274) वेदत्रिक का व्यच्छेद हो जाने से मात्र दस बन्धहेतु रहते हैं। उपशान्तमोह गुणस्थान में संज्वलन लोभ का अभाव हो जाने पर मात्र नौ बन्ध हेतु रहते हैं। क्षीणमोह गुणस्थान में भी नौ बन्धहेतु ही माने गए हैं। यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि सामान्य तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान में असत्यमनोयोग और मिश्र मनोयोग तथा असत्य वचनयोग और मिश्र वचनयोग का अभाव माना गया है, किन्तु मूल ग्रन्थ में इन चार योगों के अभाव का कोई उल्लेख नहीं है। यह तथ्य तो केवलीगम्य है। सयोगीकेवली गुणस्थान में सात बन्धहेतु माने गए हैं। उन्हें सत्य मनोयोग, असत्य अमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्य अमृषा वचनयोग तथा कार्मणकाययोग, औदारिक काययोग और समुद्घात की अपेक्षा से औदारिक मिश्र काययोग - ऐसे सात बन्धहेतु होते हैं । अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का ही सर्वथा अभाव हो जाने से कोई भी बन्धहेतु नहीं होता है। इसी चर्चा के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि एक जीव में एक समय में अधिकतम कितने बन्धहेतु हो सकते हैं। विस्तार भय से यहाँ हम उसकी चर्चा नहीं करेंगे। इस सम्बन्ध में इच्छुक व्यक्ति पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की आठवीं और नवीं गाथा की मलधारी हेमचन्द्र की टीका में देख सकते हैं, क्योंकि इन बन्धहेतुओं के करोड़ो की संख्या में विकल्प बनते हैं, अतः यहाँ उन सब की चर्चा करना सम्भव नहीं है, फिर भी इस सम्बन्ध में किंचित विस्तृत विवेचन नवीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की अठावनवीं गाथा की व्याख्या में किया पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की इक्कीस से तेईस तक की गाथाओं में किस गुणस्थान में कितने परिषह सम्भव होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। गाथा क्रमांक इक्कीस में बताया गया है कि सयोगीकेवली गुणस्थान में क्षुधा, पिपासा, उष्ण, शीत, शय्या, रोग, बन्ध मल. तण-स्पर्श.चर्या और दंशमसक-ये ग्यारह परिषह वेदनीय कर्म के उदय से होते है और सयोगीकेवली को वेदनीय कर्म का उदय है, इसीलिए उसे ग्यारह परिषहों की संभावना होती है। पुनः बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानवी जीवों में चौदह परिषह सम्भव होते हैं, क्योंकि उनमें वेदनीयजन्य उपर्युक्त ग्यारह परिषहों के अतिरिक्त ज्ञानावरणीयजन्य प्रज्ञा और अज्ञान तथा लाभ परिषह भी होते हैं, क्योंकि उनमें वेदनीय के साथ-साथ ज्ञानावरण का और अन्तराय कर्म का उदय रहा हुआ है । निषद्या, याचना, आक्रोश, अरति, स्त्री, नग्नता, सत्कार और दर्शन - ये आठ परिषह मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं, अतः सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के सभी जीवों में बाईस परिषहों की संभावना होती है । ज्ञातव्य है कि गणस्थानों में परिषहों की यह संख्या तत्त्वार्थसूत्र और उसकी श्वेताम्बर मान्य टीकाओं में भी बताई गई है । दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में एवं परवर्ती अकलंकदेव और विद्यानंदस्वामी की टीकाओं में यह प्रश्न उठाया गया है कि केवली में ग्यारह परिषहों की संभावना मानी गई है, वह उचित नहीं है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में तो सभी विचारक गुणस्थानों में परिषहों का अवतरण इसी रूप में करते हैं । पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार में इससे अधिक गुणस्थानों के सम्बन्ध में कोई उल्लेख हमें उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु पंचसंग्रह के पंचम द्वार में पुनः विविध अपेक्षाओं से गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की दूसरी गाथा में यह बताया गया है कि किस गुणस्थानवी जीव कितने कर्मों का बन्ध करता है। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के सभी जीव सामान्यतया सात या आठ कर्मों का बन्ध करते हैं । आयुष्य कर्म का बन्ध जीवन में एक ही बार होता है । जब आयुष्य कर्म का बन्ध होता है, तब आठ और जब आयुष्य कर्म का बन्ध न हो, तब सात कर्मों का बन्ध माना गया है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव छः कर्मों का बन्ध करते हैं, क्योंकि उनमें मोहनीय और आयुष्य-इन दो कर्मों का बन्ध नहीं होता है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह, और सयोगीकेवली - इन तीन गुणस्थानों में रहनेवाले जीव मात्र वेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। शेष अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, मिश्र गुणस्थानवी जीव आयुष्य को छोड़कर सात कर्मों का बन्ध करते हैं। पंचसंग्रह के पंचमद्वार की तीसरी गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा कर्मों के उदय और सत्ता की अपेक्षा से चर्चा की गई है। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक आठों ही कर्म का उदय और सत्ता सम्भव होती है । उपशान्तमोह गुणस्थान में सात कर्मों का उदय और आठ कर्म की सत्ता होती है । क्षीणमोह गुणस्थान में सात का उदय और सात की सत्ता होती है । शेष सयोगीकेवली और अयोगीकेवली में चार का उदय और चार की सत्ता होती है । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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