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________________ هههههههههههههههههمههم अध्याय 5 שששששששששששששששששששששש श्वेताम्बर एवं दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान कर्मप्रकृति और गुणस्थान सिद्धान्त श्वेताम्बर जैन कर्मसाहित्य के उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थों में शिवशर्मसूरि प्रणीत कर्मप्रकृति का प्रथम स्थान है ।३३८ शिवशर्मसूरि एवं उनकी कर्मप्रकृति का काल लगभग छठी शताब्दी माना जाता है। इसकी द्वितीय गाथा में बन्धकरण, संक्रमणकरण, उद्वर्तनकरण, अपवर्तनकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधतिकरण और निकाचनाकरण-ऐसे आठ करणों की विभिन्न द्वारों के आधार पर चर्चा करता है । वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ कर्मप्रकृतियों के आठ करणों एवं उनके उदय की तथा सत्ता की चर्चा करता है । उसमें सर्वप्रथम बन्धनकरण की चर्चा के प्रसंग में प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग और स्थिति बन्ध का विवेचन है । उसके पश्चात् संक्रमणकरण की चर्चा की गई है, संक्रमणकरण में भी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के संक्रमण पर विस्तार से विचार किया गया है । उसके पश्चात् उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण की संक्षिप्त चर्चा की गई है । पुनः पांचवें उदीरणाकरण में भी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग की उदीरणा को लेकर विस्तार से विवेचन उपलब्ध होता है । छठा उपशमनाकरण मुख्य रूप से दर्शनमोह और चारित्रमोह की उपशमना से सम्बन्धित है । सातवें में निधत्तिकरण का और आठवें में निकाचनाकरण का विवेचन अत्यन्त संक्षिप्त में मात्र तीन गाथाओं में दिया गया है । उसके बाद कर्मप्रकृतियों के उदय और सत्ता के सम्बन्ध में पुनः विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ आठ करणों तथा उदय और सत्ता के सन्दर्भ में कर्मप्रकृतियों की विस्तृत चर्चा करता है। ___ जैसा कि ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ कर्मप्रकृतियों की ही मुख्य रूप से चर्चा करता है । गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट एवं विस्तृत विवेचना का इसमें अभाव ही है, फिर भी कहीं-कहीं यथा प्रसंग गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख इसमें मिल जाता है। उदाहरण के रूप में संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक ३६, ४० में सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) छद्मस्थ आदि अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। इसी क्रम में गाथा क्रमांक ४३ में अनिवृत्तिबादर, क्षपक और सयोगीकेवली अवस्थाओं का उल्लेख है । पुनः इसी संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक ६६ में अपूर्वकरण का और गाथा क्रमांक ८० में सूक्ष्मराग अथवा सूक्ष्मसंपराय और अनिवृत्तिबादर का उल्लेख हुआ है । यहाँ यह बताया गया है कि इन गुणस्थानों में कितनी कर्मप्रकृतियों का संक्रमण किस प्रकार से होता है । ३३८ कर्मप्रकृति - शिवशर्मसूरि, गुजराती अनुवादक मुनि वल्लभविजय, प्रकाशन - माणेकलाल, चुनीलाल मागजी भूधरजी की पोल, अहमदाबाद ई.स. १६३८ (प्रस्तुत विवेचन में गाथा संख्या इसी संस्करण के आधार पर दी गई है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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