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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ नवम अध्याय........{460} में उसका उपयोग किया । इन आगमिक संस्कृत टीकाओं में सुव्यवस्थित रूप से तथा अपनी सूक्ष्मताओं के साथ गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध होते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि आगम साहित्य और आगमिक टीका साहित्य की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना विशेष रूप से उसके कर्मसाहित्य में ही पाई जाती है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का तृतीय अध्याय शौरसेनी आगम साहित्य से सम्बन्धित है । शौरसेनी आगम साहित्य में सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रन्थ कषायप्राभृत है । कसायपाहुड में हमें सास्वादन और अपूर्वकरण को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं के नाम निर्देश उपलब्ध होते है । यद्यपि प्रस्तुत कृति में भी श्वेताम्बर आगम साहित्य के समान ही न तो स्पष्ट रूप से कहीं गुणस्थान शब्द का उल्लेख मिलता है और न कहीं चौदह गुणस्थानों का सुव्यवस्थित रूप से विवरण ही उपलब्ध होता है । यद्यपि कसायपाहुड का मुख्य विषय दर्शनमोह और चारित्रमोह नामक कर्म से सम्बन्धित है और गुणस्थान की अवधारणा भी मुख्य रूप से दर्शनमोह और चारित्रमोह के क्षयोपशम को ही सूचित करती है, फिर भी कसायपाहुड में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख न होना यही सूचित करता है कि अचेलधारा की दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी कसा पाहु के काल तक गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव रहा है । जहाँ तक शौरसेनी आगम साहित्य का प्रश्न है, षट्खण्डागम प्रथम ग्रन्थ है जो गुणस्थानों की अवधारणा का न केवल सुव्यवस्थित विवरण प्रस्तुत करता है, अपितु गुणस्थान सिद्धान्त का विभिन्न मार्गणाओं, विभिन्न जीवस्थानों और विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर; एक सुव्यवस्थित विवेचन भी करता है । यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि जहाँ श्वेताम्बर आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा में एक क्रमिक विकास देखा जाता है, वहाँ षट्खण्डागम उसे अपने सम्पूर्ण विकसित रूप में प्रस्तुत करता है । जहाँ आवश्यक चूर्णि में गुणस्थान की अवधारणा मात्र तीन पृष्ठों में वर्णित है, वहाँ षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका दो सौ से अधिक पृष्ठों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत करती है । षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई भी ऐसा पक्ष अछूता नहीं रहा है, जिसकी चर्चा हमें परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में मिलती है । षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त के व्यापक और विस्तृत विवेचन को देखकर ही डॉ. सागरमल जैन आदि विद्वानों ने उसे परवर्तीकालीन और लगभग छठी शताब्दी का ग्रन्थ प्रतिपादन करने का प्रयास किया है, किन्तु हम इस विवाद में उलझना नहीं चाहते हैं । यहाँ हमारा प्रतिपाद्य तो इतना ही रहा है कि शौरसेनी आगम साहित्य में षट्खण्डागम गुणस्थान की अवधारणा को पूर्ण विकसित रूप से प्रस्तुत करता है । कसा पाहुड और षट्खण्डागम के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को स्थान दिया जाता है । आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाहुड आदि में गुणस्थान सिद्धान्तका सुव्यवस्थित चित्रण तो हमें उपलब्ध नहीं हुआ, किन्तु इन ग्रन्थों में जो सन्दर्भ उपलब्ध हुए हैं, उनसे यह स्पष्ट लगता है आचार्य कुन्दकुन्द गुणस्थान की अवधारणा से और गुणस्थान सिद्धान्त के मार्गणास्थानों और जीवस्थानों के सहसम्बन्ध से सुपरिचित थे, क्योंकि उन्होंने आत्मा के शुद्ध स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा है कि यह आत्मा न तो गुणस्थान है, न जीवस्थान और न ही मार्गणास्थान है। चाहे आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने मूल ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का सुव्यवस्थित एवं . विस्तृत उल्लेख नहीं किया है, किन्तु उनके समयसार के टीकाकार अमृतचन्द्र तथा अष्टपाहुड के टीकाकार श्रुतसागर आदि ने अपनी टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चाएं की है। शौरसेनी आगम तुल्य साहित्य के अन्य ग्रन्थ जैसे भगवती आराधना, मूलाचार आदि में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश हमें उपलब्ध होते हैं । मूलाचार में तो चौदह गुणस्थानों का क्रमिक एवं सुव्यवस्थित विवेचन उसकी मूल गाथाओं में उपलब्ध है, यद्यपि इसके कुछ संस्करणों में इन गाथाओं का अभाव भी देखा जाता है । जहाँ तक भगवती आराधना का प्रश्न है, उसमें सुव्यवस्थित रूप से चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, किन्तु व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की चर्चा के प्रसंग में संयत, अप्रमत्त आदि गुणस्थानों की अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । इस प्रकार शौरसेनी आगम साहित्य में कसायपाहुड को छोड़कर शेष सभी ग्रन्थ किसी न किसी रूप में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना से युक्त हैं । शौरसेनी आगम साहित्य के ग्रन्थों में कसायपाहुड, षट्खण्डागम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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