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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
नवम अध्याय........{461} भगवतीआराधना और मूलाचार को डॉ. सागरमल जैन ने यापनीय परम्परा के ग्रन्थ बताने का प्रयास किया है, किन्तु हमने अपने को इस विवाद से पृथक् रखने का ही प्रयास किया है और यह मानकर चले कि चाहे वे किसी भी परम्परा से सम्बन्धित हों, किन्तु मूलतः तो वे शौरसेनी आगमधारा के ही ग्रन्थ हैं । प्रस्तुत विवेचन में हमने शौरसेनी प्राकृतभाषा में रचित पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि को इसीलिए सम्मिलित नहीं किया है, क्योंकि हमारी दृष्टि में ये ग्रन्थ शौरसेनी भाषा में रचित होकर भी मुख्य रूप से कर्मसाहित्य से सम्बन्धित है। अतः इन ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसका विवेचन हमने 'श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त' नामक अध्याय में किया है।
प्रस्तुत कृति का चतुर्थ अध्याय तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित है । इस अध्याय में हमने एक ओर श्वेताम्बर परम्परा में मान्य तत्त्वार्थभाष्य के अतिरिक्त सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाओं को लिया है, तो दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि, अकलंक का तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दी का तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक हमारे मुख्य आधार ग्रन्थ रहे हैं । जहाँ तक तत्त्वार्थसूत्र मूल और श्वेताम्बर परम्परा में मान्य उसके स्वोपज्ञभाष्य का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि इन दोनों में न तो कहीं गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है और न गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का ही उल्लेख है। तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञभाष्य के नवें अध्याय के ४७ वें सूत्र में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से दस गुणश्रेणियों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि इन गुणश्रेणियों में अनेक नाम ऐसे हैं, जो गुणस्थान की अवधारणा में भी पाए जाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में जो गुणश्रेणियों की चर्चा है, वह आचारांगनियुक्ति में भी मिलती है । तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञभाष्य के नवें अध्याय में परिषहों एवं ध्यान के सन्दर्भ में आध्यात्मिक विकास की कुछ अवस्थाओं का उल्लेख अवश्य मिलता है । परिषहों के संदर्भो में बादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय, छद्मस्थवीतराग और जिन-ऐसी चार अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। इन अवस्थाओं का उल्लेख श्वेताम्बर आगम साहित्य में भी उपलब्ध है, किन्तु इन्हें सीधे रूप से गुणस्थानों से सम्बन्धित करना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार ध्यान के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तंसयत, अप्रमत्तंसयत, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय
और जिन ऐसी सात अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। इन अवस्थाओं की चर्चा भी श्वेताम्बर आगम साहित्य में भगवतीसूत्र आदि में मिलती है, किन्तु ये अवस्थाएं भी चाहे नामों के आधार पर गुणस्थानों से सम्बन्धित प्रतीत होती हो, किन्तु विद्वानों ने इन्हें गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना है । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर टीकाकारों ने भी यहाँ गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख किया है । इसके नवें अध्याय के मूल और स्वोपज्ञभाष्य में कर्मनिर्जरा के सम्बन्ध में निम्न दस अवस्थाओं के उल्लेख पाए जाते हैं - सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोह क्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन । इन्हीं दस अवस्थाओं के उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य में भी है, किन्तु न तो मूल ग्रन्थ में और न ही उसके स्वोपज्ञभाष्य में इनका सम्बन्ध गुणस्थान से बताया गया है । इस प्रकार यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थानों के नामों के समरूप कुछ अवस्थाओं के उल्लेख पाए जाते हैं - किन्तु इसके आधार पर यह कहना कठिन है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के कर्ता उमास्वाति गुणस्थान की अवधारणा से परिचित रहे हैं । इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन का कहना है कि यदि उमास्वाति गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से परिचित रहे होते, तो जैनदर्शन के सार रूप एवं संग्राहक इस ग्रन्थ में कहीं न कहीं इस महत्वपूर्ण अवधारणा का उल्लेख करते, किन्तु मूल ग्रन्थ और उसके भाष्य में अर्द्धमागधी आगमों के समान ही गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का अभाव हमारे सामने एक प्रश्नचिन्ह तो खड़ा कर देता है। चाहे हम डॉ.सागरमल जैन के तर्को से सहमत हों या न हों, किन्तु उनके तर्कों में जो बल है, वह हमें पुनर्विचार के लिए तो अवश्य ही प्रेरित करता है ।
उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात उसकी दिगम्बर और श्वेताम्बर टीकाओं में गणस्थान सम्बन्धी निर्देश अवश्य उपलब्ध होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् कालक्रम में पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि का क्रम आता है । यह निश्चित है कि सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में भाष्य के पश्चात् प्रथम स्थान रखती है । विद्वानों
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