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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
नवम अध्याय........{462) ने सर्वार्थसिद्धि और उसके कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी का काल छठी शताब्दी के लगभग माना है । सर्वार्थसिद्धि में यद्यपि नवें अध्याय के गुणश्रेणी से सम्बन्धित ४७ वें सूत्र की टीका में तो पूज्यपाद देवनन्दी ने गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख नहीं किया, किन्तु उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठ अनुयोगद्वारों से सम्बन्धित आठवें सूत्र की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का व्यापक और विस्तृत विवेचन किया है । इसके साथ-साथ उन्होंने नवें अध्याय के ३६ वें सूत्र की टीका में आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म ध्यान और शुक्लध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख किया है। सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय में आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा के प्रसंग में गुणस्थान सिद्धान्त का जितना व्यापक और विस्तृत विवेचन पूज्यपाद देवनन्दी ने किया है, उतना व्यापक और विस्तृत विवेचन न तो अकलंक के तत्त्वार्थराजवार्तिक में है और न ही विद्यानन्दजी के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में मिलता है । श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धसेनसूरि की टीका और हरिभद्र की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी चाहे कुछ भी निर्देश हो, किन्तु उनमें भी गुणस्थान का पूज्यपाद देवनन्दी के समकक्ष विस्तृत विवेचन का अभाव है । यद्यपि ये सभी टीकाएं उनसे परवर्ती है । पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा करने वाले सूत्र आठवें में चौदह गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं तथा आठ अनुयोगद्वारों के सन्दर्भ में जो अतिव्यापक और विस्तृत विवेचन किया है, यह विवेचन षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन की अपेक्षा तो संक्षिप्त है फिर भी इतना व्यापक और विस्तृत है कि हमें पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों को छोड़कर गुणस्थानों के सन्दर्भ में इतना व्यापक और विस्तृत विवेचन देखने में नहीं मिलता है । यह चर्चा सर्वप्रथम षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड में मिलती है और उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में मिलती है।
यदि हम यहाँ गुणस्थान सिद्धान्त के विकास क्रम की दृष्टि से विचार करें, तो हमको ऐसा लगता है कि एक ओर श्वेताम्बर आगम साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र मूल तथा उसका स्वोपज्ञभाष्य में इस चर्चा के सम्बन्ध में मौन है, तो दूसरी ओर षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि उसकी विस्तृत और व्यापक चर्चा प्रस्तुत करते हैं। यदि जैसा डॉ. सागरमल जैन ने माना है कि स्वीकार कर यह माने कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास कालक्रम में हुआ है, तो एक ओर आगमों, आगमिक प्राकृत व्याख्या ग्रन्थों, तत्त्वार्थसूत्र
और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं के कुछ नामनिर्देश और गुणश्रेणियों के विवेचन, दूसरी ओर पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका एवं षट्खण्डागम में गुणस्थान का व्यापक और विस्तृत विवेचन विकास की मध्यवर्ती कड़ियों को स्पष्ट करने में असमर्थ ही रहता है । विद्वानों ने ग्रन्थों का जो कालक्रम माना है उसके आधार पर जहाँ चौथी-पाँचवीं शताब्दी के श्वेताम्बर आगम साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान के विवेचन का अभाव परिलक्षित होता है, वहीं षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका उसका विस्तृत विवेचन करती है । यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि की टीका लगभग एक ही शैली में गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करती है । षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की गुणस्थानों का विवेचन करनेवाली शैली कर्मग्रन्थों में गुणस्थानों के विवेचन की शैली से पर्याप्त रूप से हमें भिन्न परिलक्षित होती है । जहाँ कर्मग्रन्थों में विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद आदि को लेकर, सत्तास्थानों और बन्धविकल्पों को लेकर चर्चा की गई है । वहाँ षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका मुख्य रूप से गुणस्थानों में मार्गणास्थानों का आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर अवतरण करती है । यद्यपि षट्खण्डागम में प्रकारान्तर से गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, सत्ता आदि की चर्चा भी मिलती है। इन दोनों शैलियों में कौन-सी शैली प्राचीन है, यह कहना कठिन है, क्योंकि प्राचीन कर्मसाहित्य और षट्खण्डागम तथा पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि की टीका लगभग-लगभग समकालीन है।
पूज्यपाद देवनन्दी के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका में भी चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों का अवतरण किया है, किन्तु उनका यह विवेचन पूज्यपाद देवनन्दी की अपेक्षा पर्याप्त रूप से संक्षिप्त ही है ।
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