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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
नवम अध्याय........{459) कि भाष्य साहित्य में भी गुणस्थानसिद्धान्त का सुव्यवस्थित विवेचन उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु विशेषावश्यकभाष्य में ग्रंथिभेद की प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन मिलता है । साथ ही आगमों में जिस प्रकार प्रकीर्ण रूप में गुणस्थान से सम्बन्धित कुछ अवस्थाओं के निर्देश उपलब्ध हैं, वैसे ही कुछ निर्देश भाष्य साहित्य में भी उपलब्ध हैं। विशेषावश्यक भाष्य में हमें निवृत्तिबादर, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह, क्षपक, निर्ग्रन्थ, सयोगीकेवली, अयोगीकेवली आदि अवस्थाओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, फिर भी यह तो अवश्य ही आश्चर्यजनक है कि भाष्य साहित्य में भी कहीं गुणस्थान शब्द का और गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित चौदह अवस्थाओं का एक साथ सुव्यवस्थित विवरण उपलब्ध नहीं होता है । मूल आगम, नियुक्ति और भाष्य तक गुणस्थान सम्बन्धी सुव्यवस्थित चर्चा का अभाव निश्चित रूप से एक प्रश्नचिहन तो हमारे सामने उपस्थित करता है कि श्वेताम्बर परम्परा के इतने विपुल प्राकृत आगम एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा का अभाव क्यों है? सम्भवतः इसी आधार पर डॉ सागरमल जैन ने यह कहने का साहस किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा जैनदर्शन की विकासयात्रा में एक परवर्ती अवधारणा है । चाहे हम उनकी मान्यता से सहमत हो या न हो किन्तु उसके पीछे जो गवेषणात्मक तर्क बल है, वह कहीं न कहीं हमें पुनर्विचार के लिए अवश्य प्रेरित करता है । ____ मूल आगम, नियुक्ति और भाष्य के पश्चात् चूर्णि साहित्य का क्रम आता है । जहाँ तक चूर्णि साहित्य का सम्बन्ध है कि आवश्यक चूर्णि में लगभग तीन पृष्ठों में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध है । श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट सुव्यवस्थित किन्तु संक्षिप्त विवरण सर्वप्रथम हमें चूर्णि साहित्य में ही उपलब्ध होता है । यद्यपि यह विवरण भी षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा प्राथमिक स्तर का ही प्रतीत होता है । चूर्णियों के पश्चात् आगमिक संस्कृत टीका साहित्य का स्थान आता है । आगम की टीकाएं इतनी विपुल हैं कि उन सबका पूर्ण सर्वेक्षण तो सम्भव नहीं था, किन्तु फिर भी हमने आगमों के संदर्भो के आधार पर, जो टीकाएं हमें उपलब्ध हो सकी, उनमें गुणस्थान की अवधारणा को देखने का प्रयत्न किया है । अंग आगमो के टीकाकारों के रूप में आचार्य हरिभद्र, शीलांक, अभयदेवसूरि, मलयगिरि आदि प्रसिद्ध है । आचार्य शीलांग ने आचारांग टीका में तथा अभयदेव ने समवायांग की टीका में गुणस्थान की अवधारणा का व्यवस्थित विवरण उपस्थित किया है। ___अंग आगमों में भगवतीसूत्र की अभयदेव की वृत्ति का भी हमने अवलोकन किया । उसमें द्विक और त्रिक के रूप में गुणस्थान की अवस्थाओं के समरूप जिन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, उनमें अनेक स्थानों पर अभयदेव ने गुणस्थान शब्द का उल्लेख किया है । फिर भी सम्पूर्ण टीका में चौदह गुणस्थानों की सुव्यवस्थित व्याख्या भगवतीसूत्र की टीका में भी हमें कहीं उपलब्ध नहीं होती है । कुछ स्थानों पर गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश होने से हम इतना तो मान सकते हैं कि भगवतीसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित थे । यह सम्भव है कि मूल आगम में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा न होने से उन्होंने अपनी इस टीका में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा को विशेष रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया है । अंग आगमों में भगवतीसूत्र के पश्चात् शेष ग्रन्थ कथात्मक है । इसीलिए हमने उनकी टीकाओं का गहराई से अवलोकन नहीं किया है, क्योंकि उसमें गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना मिलने की संभावना अल्पतम थी । इस प्रकार आगमिक टीका साहित्य में भी हमें गणस्थान सम्बन्धी विस्तृत चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । यद्यपि सभी आगमिक टीकाकार गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं और यथावसर उन्होंने गुणस्थान शब्द का अथवा गुणस्थान से सम्बन्धित अवस्थाओं का उल्लेख भी किया है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि जहाँ षट्खण्डागम जैसे दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों और उसकी धवला टीका में गुणस्थान सम्बन्धी गम्भीर विवेचन उपलब्ध है, वहीं श्वेताम्बर आगम और आगमिक प्राकृत व्याख्याओं में इस सन्दर्भ में किंचित् निर्देशों को छोड़कर कहीं भी कोई व्यापक चर्चा प्रस्तुत नहीं की गई है।
आगमों की संस्कृत टीकाओं का लेखन लगभग आठवीं शताब्दी से हरिभद्र से प्रारम्भ होता है । इस काल तक दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा अपने पूर्ण रूप में अस्तित्व में आ चुकी थी। अतःश्वेताम्बर आचार्यों ने भी अपनी टीकाओ
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