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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
नवम अध्याय........{458} किन्तु हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि प्रस्तुत प्रयत्न उसकी अपेक्षा अधिक व्यापक रूप से हुआ है । इस विवेचन में हमने सर्वप्रथम श्वेताम्बर परम्परा में मान्य ४५ आगमों का आलोडन किया और इस सम्बन्ध में आचार्य तुलसीजी एवं महाप्रज्ञ के द्वारा संपादित ३२ आगमों को तथा अवशिष्ट आगमों में मुनि दीपरत्नविजयजी के द्वारा संपादित आगमों को अपना आधार बनाया। आचार्य तुलसीजी और महाप्रज्ञजी के आगमों में अंग आगम शब्दकोष तथा अंगबाह्य आगमों के पीछे दी हुई शब्द-सूचियों से गुणस्थान सम्बन्धी संदर्भो को देखने में काफी सुविधा हुई।
इस सम्पूर्ण सर्वेक्षण में हमने यह पाया है कि मूल अंगआगमों में गुण शब्द का प्रयोग तो मिला, किन्तु गुणस्थान शब्द का प्रयोग एक भी स्थान पर नहीं मिला । साथ ही समवायांग के उस सन्दर्भ को छोड़कर जहाँ जीवस्थानों के नाम से चौदह गुणस्थानों का निर्देश हुआ है, कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी इन चौदह अवस्थाओं का एकत्रित उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। यद्यपि आगम साहित्य में विशेष संदर्भो में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि अथवा अविरत, विरताविरत और विरत जैसे शब्दों का प्रयोग अनेक स्थलों पर उपलब्ध हुआ है । भगवतीसूत्र में तो हमें अलग-अलग संदर्भो में सास्वादन गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं के नाम मिले हैं । यद्यपि जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि ये सभी नाम अलग-अलग संदर्भो में ही इन अवस्थाओं को सूचित करते हैं । जैसे सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन की चर्चा में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि-ये तीन नाम उपलब्ध हो जाते हैं । विरत या संयत की चर्चा में असंयत, संयतासंयत और संयत-ये तीन नाम उपलब्ध हो जाते हैं । इसी चर्चा में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसी दो अवस्थाओं के उल्लेख भी मिल जाते हैं । त्रिकरणों की चर्चा में यथाप्रवृत्तिकरण के साथ-साथ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के उल्लेख भी भगवतीसत्र में उपलब्ध है। सम्पराय के विवेचन के प्रसंग में बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय-ये दो नाम भी भगवतीसूत्र में उपलब्ध होते हैं । इसी क्रम में उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भी उल्लेख उपलब्ध होते है । इसी प्रकार केवली की चर्चा के प्रसंग में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-ऐसे दो नाम उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार विभिन्न संदर्भो में स्वतन्त्र-स्वतन्त्र रूप से तो गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं में सास्वादन को छोड़कर सभी अवस्थाओं के उल्लेख हमें श्वेताम्बर आगम साहित्य में और विशेष रूप से भगवतीसूत्र में उपलब्ध हुए हैं, फिर भी इन सब अवस्थाओं की चर्चा को हम गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित नहीं कर सकते हैं, किन्तु इतना निश्चित है कि गुणस्थान की अवधारणा का विकास या उसका व्यवस्थित रूप में प्रस्तुतिकरण इन्हीं अवस्थाओं को सुसंयोजित करके किया गया
यद्यपि डॉ. सागरमल जैन के इस कथन में कि आगमों में समयावांग के जीवस्थान सम्बन्धी अंश को छोड़कर गुणस्थानों का विवेचन नहीं है, आंशिक सत्यता तो हैं, किन्तु हमारा कहना यह है कि जब आगमों में सास्वादन को छोड़कर सभी अवस्थाओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, तो फिर इतना तो अवश्य ही मानना पड़ेगा कि आगमिक साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा बीज रूप में तो अवश्य रही हुई हैं । दूसरे, इस सम्बन्ध में हमारा विशेष रूप से यह मानना है कि आगमों का जो बहुत भाग विलुप्त हो गया है, उसमें कहीं गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा भी विलुप्त हो सकती है । अतः हमारा निष्कर्ष यह है कि आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त का एकान्त रूप से निषेध मानना उचित नहीं है।
नियुक्ति साहित्य के सर्वेक्षण में हमने यह पाया कि जहाँ आचारांगनियुक्ति में दस गुणश्रेणियों की चर्चा है, वहीं आवश्यकनियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का उल्लेख भी उपलब्ध है । यद्यपि डॉ. सागरमल जैन ने आवश्यक नियुक्ति की उन गाथाओं को प्रक्षिप्त तथा संग्रहणीसूत्र से अवतरित बताया है । उनका यह प्रतिपादन तर्क पुरस्सर है, किन्तु इससे यह भी सूचित होता है कि नियुक्तियों के काल तक संग्रहणीसूत्रों की रचना भी हो चुकी थी और उनमें गुणस्थान सम्बन्धी इन चौदह अवस्थाओं के उल्लेख थे। ____ आगमिक व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों के पश्चात् भाष्य का क्रम आता है । भाष्यों में यद्यपि हमें सभी भाष्य उपलब्ध नहीं हो सके, किन्तु व्यवहारभाष्य और विशेषावश्यक भाष्य आदि का हमने जो आलोडन किया, उससे हम इस निर्णय पर तो पहुँचे हैं
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