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| अध्याय 9
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उपसंहार
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में हमने मुख्य रूप से प्राकृत एवं संस्कृत जैन साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का एक सर्वेक्षण करने का प्रयत्न किया है । इस सर्वेक्षण के आधार पर हमने यह देखने का भी प्रयत्न किया है कि जैन साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपलब्ध होती है । यद्यपि हमारा प्रमुख विवेच्य तो जैन साहित्य के प्राकृत और संस्कृत भाषा में रचित गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित ग्रन्थ ही रहे है, किन्तु इसके साथ हमने आधुनिक युग में लिखे गए गुणस्थान सम्बन्धी हिन्दी ग्रन्थों को भी इस गवेषणा में आधार बनाया है, क्योंकि इन ग्रन्थों का भी मुख्य आधार तो प्राकृत और संस्कृत का जैन साहित्य ही रहा है । आधुनिक काल में हिन्दी भाषा में लिखे गए इन ग्रन्थों का वैशिष्ट्य यह है कि एक ओर वे गुणस्थान सिद्धान्त का समग्र विवेचन प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी ओर शोधपूर्ण दृष्टि से लिखे हुए डॉ. सागरमल जैन आदि के कुछ ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त की विकास यात्रा को भी अभिव्यक्त करते हैं ।
प्रस्तुत कृति के प्रथम अध्याय में हमने गुणस्थान शब्द के अर्थ विकास पर चिंतन करने का प्रयत्न किया है । इसमें हमने मुख्य रूप से यह पाया है कि आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं को सूचित करने के लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग अपेक्षांत परवर्ती है। इस सम्बन्ध में हमारे मार्गदर्शक डॉ.सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण' में विस्तार से चर्चा की है । हमने भी प्राकृत एवं संस्कृत के जैन साहित्य का आलोडन और विलोडन करके यह देखा है कि प्राचीन ग्रन्थों में गुणस्थान शब्द के स्थान पर जीवस्थान या जीवसमास जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है । प्राचीन जैन आगम ग्रन्थों, विशेष रूप से आचरांग में गुण शब्द का प्रयोग ऐन्द्रिक विषयों, संसार के बन्धन या परिभम्रण के कारणों आदि के रूप में ही पाया जाता है । हम इस सम्बन्ध में डॉ सागरमल जैन के निष्कर्ष से सहमत है कि संसार या बन्धन की विविध अवस्थाओं के सूचक के रूप में ही गुणस्थान शब्द का प्रथम प्रयोग हुआ, किन्तु बाद में गुणस्थान के गुण शब्द को विशिष्ट सद्गुणों के विकास या आध्यात्मिक एवं चारित्रिक विकास के रूप में देखा गया । इस प्रकार प्रथम अध्याय में हमने गुणस्थान सिद्धान्त के अर्थ विकास को एक शोधपरक दृष्टि से समझने और समझाने का प्रयत्न किया है । इसके साथ ही इस प्रथम अध्याय में चौदह गुणस्थानों की अवधारणा को आध्यात्मिक विकास के सोपानों के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, किन्तु यह विवेचन अपने सामान्य रूप में ही प्रस्तुत किया गया है । इस विवेचन में हम किसी शोधपूर्ण दृष्टि का दावा प्रस्तुत नहीं करते ।
प्रस्तुत शोधग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में हमने अर्द्धमागधी आगम साहित्य और आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा को खोजने का प्रयत्न किया है । इस सम्बन्ध में हमने मूल आगम ग्रन्थों के साथ-साथ उनके नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका साहित्य के संदर्भो का गम्भीरता से आलोडन-विलोडन किया है। यद्यपि इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'गणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में एक प्रयत्न अवश्य किया था,
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