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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{170} बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव इनके अबन्धक है। आहारक शरीर और आहारक शरीरांगोपांग के बन्धक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान और अपूर्वकरण गुणस्थान के उपशमक जीव हैं। अपूर्वकरण (उपशमक) का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव इनके अबन्धक हैं। सासादनसम्यग्दृष्टियों की प्ररूपणा मति-अज्ञानियों के समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों की प्ररूपणा असंयतों के समान है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की प्ररूपणा अभव्यसिद्धिक जीवों समान है।
संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में तीर्थंकर प्रकृति तक की प्रकृत प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। विशेष यह है कि सातावेदनीय की प्ररूपणा चक्षुदर्शनियों के समान है। असंज्ञी जीवों में प्रकृत प्ररूपणा अभव्यसिद्धिक जीवों के समान है।
___आहारमार्गणा में आहारक जीवों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । अनाहारकों की प्ररूपणा कार्मण काययोगियों के समान है।
षट्खण्डागम के वेदना'६० नामक चतुर्थ खण्ड में कर्मविपाक की अनुभूति को ही वेदना शब्द से अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रकरण में सोलह अनुयोगद्वारों के माध्यम से वेदना के स्वरूप का विवेचन किया गया है। सामान्यतया प्रस्तुत प्रसंग में गुणस्थानों का क्रमबद्ध रूप से विशेष उल्लेख नहीं हुआ है । प्रसंगवश कहीं-कहीं गुणस्थानों की विविध प्राप्त हो जाता हैं। वेदनाखण्ड के चतुर्थ वेदन महाधिकार में कहा गया है कि चरम समयवर्ती छद्मस्थ अर्थात् क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय को प्राप्त जीव को ज्ञानावरणीय कर्म का सबसे कम वेदन होता है। यद्यपि यहाँ मूल में गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं है, किन्तु चरम समयवर्ती छद्मस्थ से यहाँ क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय को ग्रहण किया गया है, किन्तु यहाँ यह समझना चाहिए कि वह वेदन द्रव्य की अपेक्षा कहा गया है, भाव की अपेक्षा से तो क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में वेदनीय कर्म की वेदना अर्थात निर्जरा सर्वोत्कष्ट मानी गई है, यहाँ अन्य कर्मों की अपेक्षा से चर्चा तो है, किन्त उसमें गुणस्थानों का कहीं अवतरण नहीं किया गया है, केवल टीकाकारों ने कहीं-कहीं गुणस्थानों का नाम-निर्देश कर दिया है, अतः गुणस्थानों की विवेचना की अपेक्षा से यह खण्ड उतना अधिक महत्व नहीं रखता है । इस खण्ड में सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि इसकी वेदनाभावविधान नामक प्रथम चूलिका में दस गुणश्रेणियों की चर्चा है-सम्यक्त्वोत्पत्ति, देशव्रती, विरत अर्थात् महाव्रती, अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला, चारित्रमोह का उपशम करनेवाला उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और जिन। साथ ही यहाँ इन गुणश्रेणियों में काल आदि की अपेक्षा से इनके अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है । इसमें यह बताया गया है कि इन गुणश्रेणियों में किस प्रकार क्रमशः असंख्यातगुणित अधिक कर्मों की निर्जरा होती है । गुणश्रेणियों के सम्बन्ध में हम विस्तृत चर्चा पंचसंग्रह में करेंगें । यहाँ षट्खण्डागमकार ने मात्र निर्जरा और काल की अपेक्षा से उनमें अल्प-बहुत्व का उल्लेख किया है । यह बताया गया है कि प्रत्येक गुणश्रेणी में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा कर्मों की निर्जरा होती है, किन्तु काल की अपेक्षा से प्रत्येक गुणश्रेणी अल्प-अल्पकालीन होती है । इस प्रकार सिद्धान्त यह है कि अल्पकाल में ही कर्मों की बहुत अधिक निर्जरा होती है।
षट्खण्डागम के वर्गणा' नामक पंचम खण्ड के बन्धनीय अनुयोगद्वार में बन्धनीय वर्गणाओं के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ऐसे छः विभाग किए गए हैं। आगे इस प्रसंग में शरीरों की अपेक्षा से विभिन्न मार्गणाओं का निर्देश किया गया है । इस प्रसंग में संयममार्गणा की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि संयतासंयत और संयत गुणस्थानवर्ती जीव तीन शरीर वाले होते हैं और कोई चार शरीर वाले भी होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसंपरायवाले संयत और यथाख्यात चारित्रधारी जीव तीन शरीरवाले ही होते हैं। जहाँ तक असंयत अर्थात् मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीवों का प्रश्न है, वे सामान्यतः दो, तीन या चार शरीर वाले भी हो सकते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव तीन
१६० षट्खण्डागम, पृ. ५१० से ६७७, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण १६१ षट्खण्डागम, पृ. ६८८ से ७८८, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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