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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... तृतीय अध्याय........{169) जीव हैं । सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, संज्वलन चतुष्क, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी , अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर , उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण और मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। देवायु कर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं। अप्रमत्त गुणस्थान का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने के बाद इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारकअंगोपांग नामकर्म के अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के जीव हैं। सूक्ष्मसंपराय के उपशमकाल के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक तक के सभी जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण के उपशमकाल का संख्यातवाँ भाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। सातावेदनीय के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान जीव हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क आदि की प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान है, विशेष यह है कि के आयु कर्म का बन्ध सम्भव नहीं है । प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क के असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के उपशमक सभी जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरण के उपशमकाल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक तक के सभी जीव हैं। अनिवृत्तिकरण के उपशमकाल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण के उपशमक जीवों तक के सभी जीव हैं। अनिवृत्तिकरण के उपशमकाल के अन्तिम समय में इसका बन्धविच्छेद होता हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक है। हास्य, रति, भय और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण तक के जीव का उपशमक तक के सभी जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण के उपशमकाल के अन्तिम समय को प्राप्त होकर बन्धविच्छेद होता हैं। शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थकर नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण उपशमक तक के सभी जीव हैं। अपूर्वकरण के उपशमकाल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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