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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{168} अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सभी कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। विस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । एक स्थानिक प्रकतियों की प्ररूप की प्ररूपणा के समान है। मनुष्यायु और देवायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। तीर्थकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवाले जीवों की प्ररूपणा तीर्थंकर प्रकृति तक सामान्य की प्ररूपणा के समान है। विशेष यह है कि सातावेदनीय के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं । अवधिदर्शनवाले जीवों की प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान हैं । केवलदर्शनवाले जीवों की प्ररूपणा केवलज्ञानियों के समान है। ___ लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवों की प्ररूपणा असंयतों के समान है। तेजो और पद्मलेश्यावाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, संज्वलन चतुष्क, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। विस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । असातावेदनीय की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान है । मिथ्यादृष्टि मोहनीय, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, आतप और स्थावर नामकर्म के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानीय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । मनुष्यायु और देवायु की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग नामकर्म के अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि की प्ररूपणा नारकी के समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवों में तीर्थंकर प्रकृति तक की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । विशेष यह है कि सातावेदनीय की प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है । द्विस्थानिक और एकस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा नवग्रैवेयक विमानवासी देवों के समान हैं ।। भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिक जीवों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। अभव्यसिद्धिक जीव पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नौकषाय, चार आयुष्य, चार गतियाँ, पांच जातियाँ, औदारिक, वैक्रिय, तैजस व कार्मण शरीर, छः संस्थान, औदारिक व वैक्रिय अंगोपांग, छः संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगतियाँ, त्रस, बादर, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सभी कर्मों के जीव बन्धक हैं। ये नियम से मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में प्रकृत प्ररूपणा आभिनिबोधिक ज्ञानियों के समान है, विशेष यह है कि सातावेदनीय के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती Jain Education Intemational cation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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