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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{167} क्योंकि आभिनिबोधक आदि तीन ज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से निम्न गुणस्थानों में नहीं पाए जाते हैं । मनः पर्यवज्ञानियों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं। सूक्ष्मसंपराय के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण- प्रविष्ट, उपशमक व क्षपक जीव हैं। पूर्वकरण के अन्त का असंख्यातवाँ भाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी अबन्धक हैं। सातावेदनीय के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी जीव अन्धक हैं। तीर्थंकर प्रकृति तक की शेष प्रकृतियों के बन्धाबन्ध की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है, विशेष यह है कि उनकी प्ररूपणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आरंभ होती है, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि मनः पर्यवज्ञान प्रमत्तसंयत गुणस्थान से नीचे सम्भव नहीं है । केवलज्ञानियों में सातावेदनीय के बन्धक सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इसका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। संयममार्गणा में संयत जीवों में प्रकृत प्ररूपणा मनः पर्यवज्ञानियों के समान है । सातावेदनीय के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं । सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्त में इसका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, संज्वलन लोभ, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक जीव होते हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। शेष प्रकृतियों की प्ररूपणा मनः पर्यवज्ञानियों के समान है । परिहारशुद्धि संयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय, तैजस व कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर नामकर्म, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति नामकर्म के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। देवायु के प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का संख्यात भाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध विच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारक शरीरांगोपांग नामकर्म के अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं, शेष सभी जीव बन्धक हैं। सूक्ष्मसम्परायशुद्धि संयतों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय - इन कर्मों के सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपक जीव बन्धक होते हैं। यथाख्यातविहारशुद्धि संयतों में सातावेदनीय कर्मों के बन्धक उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इसका बन्धविच्छेद हो जाता हैं, शेष जीव अबन्धक हैं। संयतासंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय - इन कर्मों के बन्धक संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक एवं वैक्रियशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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