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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{166}
के अनिवृत्तिकरणवर्ती उपशमक व क्षपक जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्तिम भाग का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्धविच्छेद होता है, शेष गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में बन्धविच्छेद होता हैं, शेष अग्रिम गुणस्थानवी जीव इसके अबन्धक हैं।
कषायमार्गणा में क्रोध कषायवाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के उपशमक और क्षपक जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। स्त्यानगृद्धि आदि द्विस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । प्रत्याख्यानावरणीय तक सभी प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। पुरुषवेद की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान है । हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकृति तक की प्रत्येक कर्मप्रकृति की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। मानकषाय वाले जीव में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय मान आदि तीन संज्वलन, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्म के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। द्विस्थानिक प्रकृतियों से लेकर पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध तक की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकति तक के सभी कर्मों की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। मायाकषायवाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, माया व लोभ, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। द्विस्थानिक प्रकतियों से लेकर संज्वलन मान तक की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकृति तक की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान है । लोभकषायवाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय - इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सक्ष्मसंपराय गणस्थान तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं. शेष सभी अबन्धक हैं। तीर्थंकर प्रकति तक शेष प्रकतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । अकषायवाले जीवों में सातावेदनीय के बन्धक उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती सभी जीव हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम भाग में इसका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी अबन्धक हैं।
ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रिय, तैजस व कार्मण शरीर, पांच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, पांच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगतियाँ, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय और अनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति. निर्माण.नीचगोत्र एवं उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। एकस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक जीव हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है। निद्रा और प्रचला की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । साता वेदनीय के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असातावेदनीय आदि से लेकर तीर्थंकर प्रकृति तक की शेष प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। विशेष यह है कि उनके बन्धकों की प्ररूपणा में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आवश्यक हैं, ऐसा जानना चाहिए,
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