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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{165} जीव अबन्धक हैं। देवगति, वैक्रियशरीर, वैक्रियशरीरांगोपांग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानदर्ती जीव बन्धक है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। वैक्रियमिश्रकाययोगियों की प्ररूपणा देवगति के समान है। विशेष यह है कि द्विस्थानिक प्रकृतियों में तिर्यंचायु और मनुष्यायु भी नहीं हैं। आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण, समचतुरनसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहाययोगति, त्रस, बादर, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के प्रमत्तसंयत गणस्थानवी जीव बन्धक हैं .शेष सभी अबन्धक हैं। कार्मणकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जगप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस, कार्मण, समचतरनसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण. उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यावृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, चार संस्थान, चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। सातावेदनीय के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व, नपंसकवेद, चार जातियाँ, हंडक संस्थान, असंप्राप्तासपाटिका संघयण, आतप, स्थावर, सक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर नामकर्म-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। देवगति, वैक्रियशरीर, वैक्रियशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थंकर नामकर्म-इन कर्मों के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदवालों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, परुषवेद, अयशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादष्टि गणस्थान से लेकर अनिवत्तिकरण उपशमक और क्षपक तक के जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। द्विस्थानिक प्रकतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । द्विस्थानिक पद से यहाँ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यगदृष्टि गुणस्थानों में बन्ध की योग्यतावाली अवस्थित प्रकतियों को ग्रहण किया गया है। निद्रा और प्रचला प्रकतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । असातावेदनीय की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। एक स्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। एक मात्र मिथ्यादष्टि गणस्थान में जो प्रकतियाँ बन्धयोग्य होकर स्थित हैं, उनकी एकस्थानिक संज्ञा है। उन एकस्थानिकों की प्ररूपणा ओघ के समान जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरणीय और प्रत्याख्यानावरणीय की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकति तक जो प्रकतियाँ हैं, इनकी प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। अपगतवेदवालों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक अनिवृत्तिकरण से लेकर सूक्ष्मसंपराय उपशमक व क्षपक गुणस्थानवी जीव बन्धक है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है. शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। सातावेदनीय के अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं । सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्त में इसका बन्धविच्छेद होता हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। संज्वलन क्रोध के अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक एवं क्षपक जीव बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर इसका बन्धविच्छेद होता है, शेष अग्रिम गुणस्थानवर्ती जीव इसके अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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