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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{164} हैं। अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के अन्तिम भाग का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका विच्छेद होता है, शेष जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (उपशमक व क्षपक) तक के जीव होते हैं। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। हास्य, रति, भय, और जुगुप्सा-इनके बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के जीव हैं। अपूर्वकरण के अन्तिम समय में इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। मनुष्यायु के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष जीव इसके अबन्धक हैं। देवायु के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का संख भाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्ध-विच्छेद होता हैं, शेष सभी जी कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण-इन
क मिथ्यादष्टि गणस्थान से लेकर अपर्वकरण में प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के सभी जीव हैं, अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी इनके अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्म के बन्धक अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक जीव हैं, अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। ती असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण (उपशमक और क्षपक) तक के जीव हैं। अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने के बाद इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव इसके अबन्धक हैं।
कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय और निगोद के जीवों के बादर एवं सूक्ष्म पर्याप्त एवं अपर्याप्त तथा बादर वनस्पतिकाय के प्रत्येक शरीरी पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीवों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के समान है । तेजस्काय और वायुकाय के बादर एवं सूक्ष्म, पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीवों की प्ररूपणा भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के समान है। विशेष यह है कि मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र-इन प्रकृतियाँ का बन्ध इनके लिए सम्भव नहीं है । त्रसकाय
त्रसकाय पर्याप्तों में तीर्थंकर प्रकति तक की प्रकति प्ररूपणा सामान्य से जैसी कही गई है. वैसी ही है।
योगमार्गणा में पांच मनोयोगी. पांच वचनयोगी और काययोगियों में तीर्थंकर प्रकति तक के बन्ध की सामान्य से जो प्ररूपणा की गई है, उसी के समान है । सातावेदनीय का बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों को होता है, शेष अर्थात् अयोगीकेवली अबन्धक हैं। औदारिककाययोगियों की प्ररूपणा मनुष्यगति के समान है । विशेष यह है कि सातावेदनीय की प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, बारहकषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सभी कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अन्नतानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, चार संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, पांच संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। सातावेदनीय के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिथंचायु, मनुष्यायु, चार जातियों, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी
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