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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{163} औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संघयण, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, हुंडक संस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मनुष्यायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। तीर्थकर नामकर्म के संयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक विमानवासी देवों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मो के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं। इन देवों में मात्र असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त व अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-इन सभी की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त के समान है । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक तक सभी पंचेन्द्रिय जीव बन्धक हैं, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में इनको बन्ध-विच्छेद होता हैं, शेष पंचेन्द्रिय जीव इनके अबन्धक हैं । निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, चार संस्थान, चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला-इन दो कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक एवं क्षपक सभी जीव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं । सातावेदनीय के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी जीव बन्धक हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, शेष अर्थात् अयोगीकेवली अबन्धक हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, और अयशः कीर्ति-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के सभी जीव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोह, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर-इन कर्मो के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया एवं लोभ, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंघयण और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी-इन सभी कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष जीव इनके अबन्धक हैं। प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं। पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध के बन्धक मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के सभी जीव हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्त में संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण (उपशमक व क्षपक) तक के जीव Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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