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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय ........{162} आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत स्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपर्युक्त तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्यग्दृष्टि जीवों को सम्भव है। निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, तिर्यंचगति, औदारिक शरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र- इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसक वेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण- इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं । अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ के मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। देवायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों में पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, छः संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छः संस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति द्विक, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन कर्मों के सभी तिर्यंच बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं है ।
मनुष्य गति, मनुष्य पर्याप्त एवं मनुष्यनियों में तीर्थंकर नामकर्म आदि के सम्बन्ध में सामान्य से जो बताया गया है, उसी के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि निद्रा - निद्रा आदि द्विस्थानिक प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरणीय चतुष्क की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान है । मनुष्य अपर्याप्त जीवों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के समान है।
देवगति में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, चार संस्थान, चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, आतप और स्थावर - इन कर्म के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मनुष्यायु के मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं । भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की प्ररूपणा सामान्य देवों के समान है। विशेष यह है कि इन देवों को तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता है। सौधर्म व ईशान कल्पवासी देवों की प्ररूपणा सामान्य देवों के समान है । सानत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्पवासी देवों तक की प्ररूपणा प्रथम पृथ्वी के नारकियों के समान है । आनत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक विमानवासी देवों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान,
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