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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{161} को बांधते हैं - (१) दर्शनविशुद्धता, (२) विनयसंपन्नता, (३) शीलव्रतों में निरतिचारिता, (४) छः आवश्यकों में अपरिहीनता, (५) क्षण-लब प्रतिबोधनता, (६) लब्धि संवेग सम्पन्नता, (७) यथाशक्ति तथा तप, (८) साधुओं की प्रासुकपरित्यागता, (६) साधुओं की समाधि संधारण, (१०) साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्ता, (११) अरहंतभक्ति, (१२) बहुश्रुतभक्ति, (१३) प्रवचनभक्ति, (१४) प्रवचनवत्सलता, (१५) प्रवचन प्रभावना और (१६) अभीक्ष्ण- अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्ता।
जिन जीवों को तीर्थकर नाम-गोत्र-कर्म का उदय होता है, वे उसका उदय से देव, असुर और मनुष्य लोक के अर्चनीय, पूजनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, नेता, धर्मतीर्थ के कर्ता, जिन व केवली होते हैं ।
आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा गति मार्गणा में नरकगति में नारकियों में पांच ज्ञानावरण, छः दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस,
र, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक के सभी गुणस्थानवर्ती नारकी जीव बन्धक हैं, अबन्धक कोई नही है । निद्रा-निद्रा. प्रचला-प्रचला. स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिथंचायु, तिथंचगति, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि चार संस्थान, वजऋषभनाराच आदि चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादष्टि और सासादनसम्यग्दष्टि गणस्थानवर्ती नारकी सभी जीव बन्धक हैं. शेष नारकी अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, हुंडकसंस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी नारकी जीव बन्धक हैं. शेष नारकी अबन्धक हैं । मनुष्याय के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी नारकी जीव बन्धक हैं. शेष नारकी अबन्धक हैं। तीर्थकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दष्टि गणस्थान शेष नारकी अबन्धक हैं। इसके बन्ध की व्यवस्था उपरिम तीन पृथ्वियों में ही जानना चाहिए। चौथी, पांचवी, छठी तथा सातवीं पृथ्वी में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्भव नही है। सातवीं पृथ्वी के नारकियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः असाता वेदनीय, अप्रत्याख्यानीय क्रोध आदि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक. तैजस. कार्मण शरीर. समचतरससंस्थान. औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव बन्धक हैं, शेष नारकी इनके अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि चार संस्थान, वज्रऋषभनाराच आदि चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्म के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी हैं, शेष अबन्धक हैं । मिथ्यादृष्टि मोहनीय, नपुंसकवेद, तिथंचायु, हुंडक संस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी बन्धक हैं, शेष नारकी अबन्धक हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र-इन कर्मों के सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी बन्धक हैं, शेष नारकी अबन्धक हैं।
तिर्यंचगति में पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में पांच ज्ञानावरणीय, छ: दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर,
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