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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{160} होता है । ये सभी गुणस्थानवाले जीव इसके बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभ नामकर्म और अयशः कीर्ति- इन छः प्रकृतियों के मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म- इन सोलह प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, आगे के गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया व लोभ, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी इन नौ प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं । प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चार प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं । पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण बादर साम्परायिक प्रविष्ट उपशमक एवं क्षपक तक के सभी जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिबादर गुणस्थान काल के संख्यात बहुभाग में जाकर उनका बन्ध-विच्छेद होता है। ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया- इन दो प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण बादरसंपराय प्रविष्ट उपशामक और क्षपक तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं । अनिवृत्तिबादर गुणस्थान का संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है । ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर साम्परायिक प्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के अन्तिम समय में जाकर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक । हास्य, रति, भय और जुगुप्सा-इन चार प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर पूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण के अन्तिम समय में जाकर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक हैं । मनुष्यायु के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव है, शेष गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक हैं । देवायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव बन्धक हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का संख्यातवें भाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्ध-विच्छेद होता है । ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इसके बन्धक हैं, शेष गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण- इन सत्ताईस प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान का संख्या बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है । ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारक शरीरांगोपांग नामकर्म के बन्धक अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक एवं क्षपक हैं। अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर उनका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं और शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान 'से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण काल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इसके अबन्धक हैं। यहाँ षट्खण्डागम में कितने कारणों से जीव तीर्थंकरनामगोत्रकर्म को बांधते हैं ? तीर्थंकर प्रकृति का उच्चगोत्र के साथ अविनाभाव पाया जाता है, इसलिए यहाँ उसे 'गोत्र' नाम से भी बताया गया है । जीव मनुष्यगति में निम्न सोलह कारणों से तीर्थंकर नामकर्म 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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