SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... तृतीय अध्याय.......{159) द्रव्यपरिमाणानुगम नामक पंचम द्वार की सम्यक्त्वमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिणाम की अपेक्षा से पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण अल्प-बहुत्वानुगम नामक ग्यारहवें द्वार की लेश्यामार्गणा में यह बताया गया है कि शुक्ललेश्यावाले जीव सबसे अल्प हैं । उनसे पद्मलेश्यावाले जीव असंख्यातगुणा हैं । उनसे तेजोलेश्यावाले जीव संख्यातगुणा है । उनसे लेश्यारहित अर्थात् अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती त्रिकाल के जीव अनन्तगुणा है। __ अल्प-बहुत्व नामक ग्यारहवें द्वार की सम्यक्त्वमार्गणा में यह कहा गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे अल्प हैं। प्रकृत (इसी) मार्गणा में अन्य प्रकार से अल्प-बहुत्व की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे अल्प हैं । उनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा हैं। उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा षट्खण्डागम के तृतीय बन्ध-स्वामित्वविचय खण्ड में गुणस्थान विचारणा : पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के तृतीय बन्ध-स्वामित्वविचय' नामक खण्ड में कौन कौन-सी प्रकृतियों के स्वामी कौन-कौन से गुणस्थानवी जीव हैं तथा कौन-से गुणस्थान में कौन-सी प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद होता है, इसका विवेचन किया गया है। बन्धस्वामित्वविचय का निर्देश ओघ (सामान्य) और आदेश (विशेष) की अपेक्षा से दो प्रकार का है । सामान्य की अपेक्षा बन्धस्वामित्वविचय के विषय में चौदह जीवसमास गुणस्थान जानने योग्य हैं, वे इस प्रकार हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयता संयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्त संयत, अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक, अनिवृत्ति बादर साम्परायिक प्रविष्ट उपशमक व क्षपक, सूक्ष्मसंपराय प्रविष्ट उपशम व क्षपक, उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली । यहाँ इन चौदह जीवसमासों से सम्बन्धित प्रकृति बन्धव्युच्छेद कहा जाता है अर्थात् जिन प्रकृतियों का जिस गुणस्थान में बन्धविच्छेद होता है उसी गुणस्थान तक उनके बन्ध का स्वामी है । उससे आगे के गुणस्थानों में उनका बन्ध नहीं होता है । तदनुसार यहाँ उन्हीं चौदह गुणस्थानों के आश्रय से कर्म प्रकृतियों के बन्ध का विच्छेद कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयत उपशमक व क्षपक तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव पांच ज्ञानवरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सोलह प्रकृतियों के बन्धक हैं। सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयत गुणस्थान के अन्तिम समय में उनका बन्ध-विच्छेद होता है। ये सभी गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान आदि चार संस्थान व वज्रऋषभनाराच संघयण आदि चार संस्थान, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, अनादेय नामकर्म और नीचगोत्र-इन पच्चीस प्रकृतियों के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं। ये दोनों गुणस्थानवी जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला-इन दो दर्शनावरणीय प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्टशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक तक के जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान के संख्यातवें भाग में जाकर उनका बन्ध-विच्छेद होता है, इनके ये सभी गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। सातावेदनीय के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में जाकर उनका बन्ध विच्छेद १८६ षटखण्डागम, पृ. ४६५ से ५०६, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy