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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{171} या चार शरीरवाले ही होते है, क्योंकि इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, अतः दो शरीर की संभावना नहीं होती है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव भी अधिकतम चार शरीर वाले होते हैं। यहाँ यह जानना चाहिए कि वे आहारक और वैक्रिय शरीर की रचना तो छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही करते हैं। अतः इसे रचना की दृष्टि से नहीं सत्ता की दृष्टि से ही स्वीकार करना चाहिए। अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती जीव तीन शरीरवाले ही होते हैं-औदारिक, तैजस और कार्मण । अयोगीकेवली गुणस्थान के अन्त में योगनिरोध के साथ देह का त्याग हो जाता है।
षट्खण्डागम के पंचम खण्ड के कर्म नामक चतुर्थ अनुयोगद्वार में कर्म शब्द की व्याख्या सोलह अनुयोगद्वारों के माध्यम से की गई है । यहाँ सर्वप्रथम कर्म शब्द के निक्षेप बताये गए हैं - (१) नामकर्म, (२) स्थापनाकर्म, (३) द्रव्यकर्म, (४) प्रयोगकर्म, (५) समवदानकर्म, (६) अधःकर्म, (७) ईर्यापथकर्म, (८) तपःकर्म, (६) क्रियाकर्म और (१०) भावकर्म ।।
__ कर्मशब्द के इन दस निक्षेपों से चतुर्थ निक्षेप प्रयोगकर्म का विवेचन करते हुए यहाँ बताया गया है कि प्रयोगकर्म तीन प्रकार के होते हैं-मनःप्रयोगकर्म, वचन प्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म। ये तीन प्रकार के प्रयोगकर्म संसार में स्थित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सभी जीवों को होते हैं। इस प्रकार यहाँ प्रयोगकर्म के सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण हुआ है ।।
पुनः इसी क्रम में सातवें ईर्यापथकर्म के अर्थनिक्षेप को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि मात्र योग के निमित्त से जो कर्म होता है, वह ईर्यापथकर्म हैं । ऐसा ईर्यापथकर्म छद्मस्थवीतराग अर्थात् उपशान्तकषाय एवं क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवों को तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों को होता है, क्योंकि इन जीवों में योग के अतिरिक्त कर्मों के आश्रव का अन्य कोई कारण नहीं होता । इन कर्मों का प्रथम समय में आश्रव होता है, दूसरे समय में प्रदेशोदय होकर तीसरे समय में ये कर्म निर्जरित हो जाते हैं। उपर्युक्त गुणस्थानों में कषाय का अभाव होने के कारण मात्र योग निमित्त से ईर्यापथकर्म ही होते हैं ।
षट्खण्डागम के पंचम वर्गणा नामक खण्ड के बन्ध अनुयोगद्वार में कर्मबन्ध की स्थितियों का स्पष्टीकरण करते हुए उनके चार प्रकार बताये गए हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इसी प्रसंग में बन्ध के चार प्रकारों का उल्लेख हैं- नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध । आगे भावबन्ध की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि यह भावबन्ध भी तीन प्रकार का हैं-विपाकप्रत्ययिक भावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक भावबन्ध और तदुभयप्रत्ययिक भावबन्ध । इसी क्रम में आगे अविपाकप्रत्ययिक भावबन्ध के औपशमिक और क्षायिक-ऐसे दो विभाग किए गए है। इसी चर्चा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया हैं कि उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानवी जीवों को औपशमिकप्रत्ययिकभावबन्ध होता है, किन्तु क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ अर्थात् बारहवें गुणस्थानवी जीवों को क्षायिक अविपाकप्रत्ययिकमावबन्ध होता है। इनके अतिरिक्त भी अन्त में किन-किन जीवों को अविपाकप्रत्ययिक क्षायिक भावबन्ध होता है, इसकी विस्तृत चर्चा इस प्रसंग में मिलती है, किन्तु उनका सीधा सम्बन्ध गुणस्थानों से न होने के कारण, यहाँ वे सभी विवेचनाएं अपेक्षित नहीं है ।
| उपसंहार इस प्रकार हम देखते हैं कि षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान नामक खण्ड के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार में चौदह गुणस्थानों का न केवल नामोल्लेख मिलता है अपितु उनके स्वरूप का भी निर्देश किया गया है । साथ ही चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों का अवतरण भी किया गया है। केवल इतना ही नहीं कि षट्खण्डागम का यह जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओं के सहसम्बन्ध को स्पष्ट करता है, अपितु आठ अनुयोगद्वारों में भी मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सहसम्बन्ध की चर्चा करता है। मार्गणाओं और गुणस्थानों का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट करने वाला यदि कोई प्रथम ग्रन्थ है, तो वह षट्खण्डागम ही है । यह भी निश्चित है कि षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान नामक खण्ड में गुणस्थानों का जितना विस्तत विवरण दिया गया है, उतना विस्तृत विवरण इसके अन्य खण्डों में नहीं मिलता है। जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड
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