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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ नौ चूलिकाओं में से दूसरी, आठवीं और नवीं चूलिका में भी गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देश उपलब्ध होते हैं । षट्खण्डागम के क्षुद्रबन्धक नामक द्वितीय खण्ड में किस गुणस्थानवर्ती जीव किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है, इसका उल्लेख किया गया है । इसी प्रकार बन्धस्वामित्वविचय नामक तृतीय खण्ड में भी किस गुणस्थान में जीव किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है और किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं करता है तथा किस गुणस्थानवर्ती जीव में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय या विच्छेद हो जाता है, इसकी चर्चा की गई है। इस प्रकार षट्खण्डागम के द्वितीय एवं तृतीय खण्ड में भी गुणस्थान की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । वेदना नामक चतुर्थ खण्ड में मुख्यतया इस बात की चर्चा है कि किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है । इस प्रकार से इस खण्ड में भी कर्मों के वेदन या उदय की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध हो जाती है। इस खण्ड की विशेषता यह है कि वेदनभावविधान नामक प्रथम चूलिका में दस गुणश्रेणियों की चर्चा उपलब्ध होती है । दस गुणश्रेणियों की इस चर्चा को विद्वानों ने गुणस्थान सिद्धान्त के विकास का आधर माना है । १६२ ये गुणश्रेणियाँ गुणस्थान सिद्धान्त से निकट रूप से सम्बन्धित हैं । इस चतुर्थ खण्ड की प्रथम चूलिका में इन गुणश्रेणियों की चर्चा के पूर्व जो दो गाथाएं दी गई हैं, वे आचारांगनिर्युक्ति में किंचित् पाठभेद के साथ यथावत् रूप में दी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागमकार ने इन गाथाओं को सामने रखकर ही गुणश्रेणियों का विवेचन किया है । ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित एक गद्य ग्रन्थ है । पद्य रूप में गाथाओं का अवतरण चतुर्थ वेदना खण्ड और पंचम वर्गणा खण्ड में मिलता है। इससे विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि षट्खण्डागम में जो गाथाएं अवतरित की गई हैं, वे ग्रन्थकार ने अन्यत्र से यथावत् ग्रहण की है। षट्खण्डागम के पांचवें वर्गणा नामक खण्ड में सामान्यतया गुणस्थान सिद्धान्त का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता हैं । प्रसंगोपात कहीं-कहीं गुणस्थानों के नाम मात्र मिलते हैं । गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की दृष्टि से षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्ड और गुणश्रेणियों की चर्चा की अपेक्षा षट्खण्डागम का चतुर्थ खण्ड के चूलिका भाग को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि उपलब्ध ग्रन्थों में " षट्खण्डागम" गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चा करनेवाला प्रथम ग्रन्थ है। श्वेताम्बर परम्परा में समवायांग सूत्र में जो गुणस्थान सम्बन्धी नामनिर्देश हैं, उनमें गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है, जबकि षट्खण्डागम में यद्यपि प्रारंभ में तो गुणस्थानों के लिए जीवसमास शब्द का प्रयोग किया गया है, किन्तु बाद में इसमें गुणस्थान शब्द का भी स्पष्ट निर्देश मिलने लगता है। इस आधार पर डॉ. सागरमल जैन आदि ने यह माना है कि समवायांग की अपेक्षा षट्खण्डागम के उल्लेख परवर्ती हैं । १६३ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ समवायांग में गुणस्थानों के लिए जीवस्थान ( जीवठाण) शब्द का प्रयोग है, वहीं षट्खण्डागम में जीवसमास शब्द का प्रयोग है । यह एक विलक्षण तथ्य है कि जीवसमास नामक ग्रन्थ में भी गुणस्थानों को सर्वप्रथम जीवसमास ही कहा गया है । जिस प्रकार षट्खण्डागम में बाद में उनके लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है, वैसे ही जीवसमास में भी आगे गुणस्थान (गुणठाण) शब्द प्रयोग हुआ है । इन कुछ आधारों पर पण्डित हीरालाल शास्त्री और डॉ. सागरमल जैन ने यह माना कि षट्खण्डागम की अपेक्षा जीवसमास किंचित् प्राचीन है, दोनों की समरूपता भी विशेष रूप से दृष्टव्य है। १६४ फिर भी इतना तो निश्चित है कि यदि श्वेताम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की चर्चा करनेवाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है, तो दिगम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की चर्चा करने वाला सर्वप्रथम ग्रन्थ षट्खण्डागम है । जहाँ श्वेताम्बर परम्परा में परवर्ती आचार्यों के द्वारा की गई गुणस्थान की चर्चा जीवसमास से प्रभावित रही हो, वहीं दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी से प्रारंभ करके जो गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है, उसका आधार षट्खण्डागम है। इस प्रकार षट्खण्डागम को गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थ १६२ देखें - गुणस्थानसिद्धान्तः एक विश्लेषण, डॉ. सागरमल जैन, अध्याय ३ एवं ४, पृ. २०-४१ १६३ देखें - गुणस्थानसिद्धान्तः एक विश्लेषण, पृ. ४० १६४ जीवसमास भूमिका, पृ. ११-१५ तृतीय अध्याय........{172} Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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