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रखें । वास्तव में उनका कथन सत्य प्रमाणित हुआ और मैं अध्ययन के इस मुकाम पर पहुँची । लोढाजी के प्रति आभार P प्रकट करना अपना कर्तव्य समझती हूँ।
जहाँ तक इस शोधकार्य का प्रश्न है, मुझे सुरेन्द्रजी लोढा के अतिरिक्त जावरा निवासी सुरेशजी महेता की भी प्रेरणा निरन्तर मिलती रही है । अतः डॉ. सुरेशजी महेता भी मेरे धन्यवाद के पात्र हैं । इसी प्रकार शोधकार्य के लिए डॉ. मिथिलाप्रसाद जी त्रिपाठी अध्यक्ष संस्कृत विभाग, देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय, इन्दौर की ओर से भी मुझे प्रेरणा प्राप्त हुई। डॉ. त्रिपाठीजी ने तो न केवल मुझे प्रेरणा ही प्रदान की वरन एक समय तो उन्होंने शोधकार्य के लिए विषय का निर्धारण कर रूपरेखा भी बनवा दी थी और मैं भी आशान्वित हो गई थी कि अब अपना शोधकार्य प्रारम्भ हो जाएगा, किन्तु नियमों के चक्रव्यूह में यह शोधकार्य प्रारम्भ होने के पहले समाप्त हो गया, परन्तु डॉ. त्रिपाठीजी की प्रेरणा और सहयोग का भाव बराबर बना रहा । इसके लिए डॉ. त्रिपाठीजी के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ।
शोधकार्य करने के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी, किन्तु नियमों की आपाधापी में विलम्ब होता जा रहा था। इसी बीच जैन विद्या के प्रख्यात विद्वान डॉ. सागरमलजी जैन से सम्पर्क हुआ और उनके मार्गदर्शन में इस विषय पर कार्य प्रारम्भ हो गया। कार्य प्रारम्भ तो हो गया, किन्तु साधक जीवन की अपनी सीमाएं होती हैं, समस्याएं होती हैं, सन्दर्भ ग्रन्थों की प्राप्ति की समस्या भी बड़ी थी, किन्तु डॉ. जैन सा. के मार्गदर्शन एवं सहयोग से कार्य को गति मिलती रही । इसी तारतम्य में उनके निर्देश पर मैंने शाजापुर प्रस्थान किया, वहाँ कुछ समय ही रुक सकी, पुनः पालीताना की ओर पदयात्रा करनी पड़ी, गुरुदेव की आज्ञा से हमारा सन् २००१ का चातुर्मास उज्जैन हुआ । यहाँ शोधकार्य को कुछ गति मिली । चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् हम पुनः विहार कर शाजापुर पहुंचे और वहाँ प्राच्य विद्यापीठ में हमारे शोधकार्य को तीव्र गति मिली । इसी अनुक्रम में सन् २००२ का हमारा चातुर्मास भी शाजापुर ही रहा और ये शोधकार्य डॉ. जैन सा. के मार्गदर्शन एवं सहयोग से निरन्तर प्रगति करता रहा । वस्तुतः इस शोधकार्य का सम्पूर्ण श्रेय जैनधर्म-दर्शन के मर्मज्ञ डॉ. सागरमलजी जैन को है । इस कृति के प्रणयन के मूल आधार होने से इस कृति के साथ उनका नाम सदा-सदा के लिए स्वतः जुड़ गया है । वे शोधप्रबन्ध के दिशा निर्देशक ही नहीं है, वरन् मेरी मानसिक दृढ़ता के प्रतिष्ठाता भी हैं । अन्तर्हृदय से मैं भावाभिनत हूँ उनके प्रति !
अपने शोधप्रबन्ध को पूरा करने में मुझे चन्द्रसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, खाराकुआँ, उज्जैन, महोदयसागर ज्ञान भण्डार, पीपलीबाजार, इन्दौर, राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान भण्डार, रतनपोल, अहमदाबाद, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी एवं प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर से समय-समय पर सन्दर्भ ग्रन्थ उपलब्ध होते रहे । इसके लिए मैं इन सभी संस्थाओं के व्यस्थापकों तथा कार्यकर्ताओं के प्रति आभार प्रकट करती हूँ।
इस शोधकार्य में डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन ने भी समय-समय पर सहयोग प्रदान किया और अध्ययन के बीच आए अवरोध को दूर कर इसे गति प्रदान की । मैं उनके प्रति भी आभार प्रकट करती हूँ। ___ मेरे इस शोधकार्य में नीरज कुमारजी सुराना, इन्दौर, मनोज कुमारजी नारेलिया, शाजापुर, मनोहरलालजी छाजेड़, पारा तथा रमणीकजी महेता, जावरा का आत्मीय सहयोग रहा है । इन सभी की गुरु भक्ति एवं ज्ञान-भक्ति अनुमोदनीय है।
प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में जिन-जिन विद्वान लेखकों एवं सम्पादकों के ग्रन्थों का उपयोग हुआ है, उन सभी के प्रति
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