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________________ | चर्चा किस रूप में है और उसका गुणस्थान सिद्धान्त से क्या सम्बन्ध है, इसकी चर्चा है। नवम अध्याय, उपसंहार के रूप में है। इसमें शोधकार्य का संक्षिप्त निष्कर्ष दिया गया है। संयमी जीवन में उपाधियों का कोई महत्व नहीं होता है, फिर भी इस दिशा में जो प्रयत्न किया जाता है इसका प्रमुख उद्देश्य यही है कि परीक्षा के निमित्त से अध्ययन हो जाता है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए ऐसा करना उचित प्रतीत होता है, अन्यथा साधक के संयमी जीवन में इतनी व्यस्तता बनी रहती है कि अध्ययन के लिए अलग से समय निकाल पाना कठिन होता है। जिस समय मैंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, उस समय यह सोचा भी नहीं था कि मैं अपना अध्ययन इस स्तर तक कर सकूँगी । समय के साथ-साथ अध्ययन चलता रहा और परीक्षा भी उत्तीर्ण करती रही । मेरी इस अध्ययन यात्रा में प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य दादा गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. का दिव्य आशीर्वाद एवं मंगल कृपा सदैव रही है । जब कभी मैंने अपने आपको असमंजस की स्थिति में पाया अथवा कहीं कोई बाधा उत्पन्न हुई तभी मैंने परम श्रद्धेय दादागुरुदेव श्री के नाम का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है और मेरा मार्ग प्रशस्त हो गया। उनका मंगलमय आशीर्वाद एवं कृपा ही मेरे आत्म विश्वास का आधार है। मेरी अध्ययन यात्रा में परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य देवेश श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी म.सा. का भी असीम आशीर्वाद रहा है। समय-समय पर मुझे उनका मार्गदर्शन भी मिलता रहा । उच्च अध्ययन के लिए परम पूज्य गुरुदेव भी सदैव मेरा उत्साहवर्धन करते रहे, उनके इस कृपाभाव के लिए मैं उनकी आजीवन ऋणी रहूँगी। परम पूजनीया मातृहृदया, सरलस्वभावी गुरुणीजी साध्वी श्री शशिकलाश्रीजी की भी मैं कृतज्ञ हूँ कि जिनके आशीर्वाद व स्नेह से मैं अपने अध्ययन को जारी रख सकी। ज्ञानपिपासु साध्वीजी दर्शितकलाश्रीजी (सांसारिक बहन) का इस शोधकार्य की पूर्णाहुति के प्रसंग में स्मरण करना भी मेरा परम कर्तव्य है, जिनका अध्ययन के क्षेत्र में मुझे सदैव सहयोग मिलता रहा है। अपनी अध्ययन यात्रा में मुझे जिसका अधिक सहयोग मिला है, वह मेरी सहपथगामिनी सदाप्रसन्ना एवं कर्मठ साध्वी जीवनकलाश्रीजी है । उन्होंने अपने शरीर से अस्वस्थ होते हुए भी मुझे सदैव सहयोग दिया है । उन्होंने समय-समय पर सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर मुझे अध्ययन के लिए समय एवं सुविधाएं उपलब्ध करवाई । उनका अविस्मरणीय सहयोग मेरी श्रुतसाधना का प्राण है । साध्वीश्री अपूर्वकलाश्रीजी, साध्वीश्री सुमनकलाश्रीजी तथा अध्ययनरता साध्वीजी सौरभकलाश्रीजी ने भी यथासमय मुझे सहयोग किया है । मैं उन सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनकी सेवाभावना का अवमूल्यन नहीं करूंगी। इन सभी के स्नेह-सहयोग से मेरी ज्ञान यात्रा और साधना यात्रा सुचारू रूप से चलती रहे । यही शुभेच्छा है ! साथ ही यह भावना भी अभिव्यक्त करती हूँ कि उनका यह सेवाभाव सदा बना रहे। ___मेरी अध्ययन यात्रा में प्रेरणास्रोत रहे हैं दैनिकध्वज, मन्दसौर के सम्पादक, अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री सुरेन्द्र जी लोढा । लोढा जी जब भी आते मुझे अध्ययन के लिए प्रेरित करते रहते। उनकी प्रेरणा से मुझे काफी उत्साह मिला है । कई बार मैंने उनके सामने समयाभाव की समस्या की बात भी कही, । तब भी उनका यही कहना रहा कि जहाँ शुभ भावना होती है, वहाँ राह निकल ही आती है । आप अपने प्रयास जारी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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