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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
सप्तम अध्याय........{434} अपरावर्तमान और परावर्तमान कर्मप्रकृतियों का निर्देश करके किस गुणस्थान में किनका बन्ध होता है, इसका विवेचन है । गाथा क्रमांक ८२ के उत्तरार्द्ध तथा ८३ में चार आनुपूर्वियों में किस गुणस्थान में किस आनुपूर्वी का बन्ध या उदय होता है, इसकी चर्चा की गई है । गाथा क्रमांक ८४ से २६ तक पुद्गलविपाकी, गाथा क्रमांक ६७ और ८८ में जीवविपाकी कर्मप्रकृतियों के निर्देश के साथ किस गुणस्थान में कितनी पुद्गलविपाकी और कितनी जीवविपाकी कर्मप्रकृति होती हैं, इसका निर्देश किया गया है । आगे गाथा क्रमांक ८६ से लेकर ६८ तक विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, सत्ता और उदय की चर्चा के साथ बन्धस्थानों, उदयस्थानों और सत्तास्थानों का विवेचन है । इसका विवेचन मूल गाथाओं की अपेक्षा टीका में विस्तार से दिया गया है। इसे निम्न तालिका से समझा जा सकता है -
__गाथा क्रमांक ६६ से लेकर १०२ तक विभिन्न गुणस्थान में आश्रव के कितने भेद सम्भव होते हैं, इसका विवेचन है । इस प्रकार गाथा क्रमांक १०३ और १०४ में किस-किस गणस्थान में संवर के कितने भेद सम्भव हैं. इसका निर्देश है । गाथा क्रमांक १०५ में विभिन्न गुणस्थानों में कर्म की निर्जरा किस रूप में होती है, इसका निर्देश है । इसमें कहा गया है कि प्रथम तीन गुणस्थानों में अकामनिर्जरा ही सम्भव होती है । सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान में सकामनिर्जरा प्रारम्भ होती है । छठे गुणस्थान से निर्जरा के जो बारह भेद कहे गए हैं, वे सम्भव होते हैं । तेरहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के तृतीय चरण और चौदहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण के द्वारा निर्जरा सम्भव होती है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १०६ में चार प्रकार के बन्ध में किस गुणस्थान में कितने प्रकार के बन्ध सम्भव हैं, इसका विवेचन है । इसके पश्चात् प्रथम विभाग की अन्तिम गाथा १०७ में भवसंवेह का निर्देश करके अन्त में ग्रन्थकार ने अपने नाम का निर्देश किया है।
इस प्रकार हम देखते है कि विचारसार अपने प्रथम विभाग में ६६ द्वारों में गुणस्थानों का विवेचन प्रस्तुत करता है । इसमें बन्ध सम्बन्धी दस द्वार, उदय सम्बन्धी दस द्वार, सत्ता सम्बन्धी दस द्वार तथा उदीरणा सम्बन्धी दो द्वार हैं । मूल बन्धहेतु और उत्तरबन्धहेतु तथा भिन्न बन्धहेतु के छः द्वार, भावों में मूलभाव, उत्तरभाव और भिन्नभाव के तीन द्वार और सन्निपातिक भाव के पांच द्वार-इस प्रकार भाव सम्बन्धी आठ द्वार हैं । जीव के मूलभेद, उत्तरभेद तथा चारों आनुपूर्वी सहित छः द्वार हैं । इसी प्रकार चार ध्यानों के चार द्वार हैं । ध्रुवबन्ध, अधुवबन्ध, धुवोदयी, अध्रुवोदयी, ध्रुवसत्ता और अध्रुवसत्ता सम्बन्धी छः द्वार है । सर्वघाती, देशघाती और अघाती कर्मप्रकृतियों के तीन द्वार हैं । पुण्यप्रकृति, पापप्रकृति, परावर्तमान प्रकृति और अपरावर्तमान प्रकृति के चार द्वार हैं । जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवविपाकी कर्मप्रकृतियों के चार द्वार, आठ कर्मों के बन्ध विकल्प सम्बन्धी आठ द्वार हैं । इसके पश्चात् जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, समुद्घात, दंडक, वेद, योनि, कुलकोड़ी, अल्प-बहुत्व, आश्रव, संवर, निर्जरा और बन्धतत्व सम्बन्धी एक-एक द्वार है । इस प्रकार कुल ६६ द्वारों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । यद्यपि इनमें से अधिकांश द्वारों की चर्चा पंचसंग्रह एवं कर्मग्रन्थों में मिलती है । फिर भी आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्धतत्व, योनिद्वार और कुलकोड़ी द्वार आदि कुछ ऐसे द्वार है जो पूर्व में विवेचित नहीं है । यही इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य माना जाता है।
विचारसार प्रकरण के द्वितीय विभाग में बासठ मार्गणाओं के सम्बन्ध में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का विचार किया गया है । इस प्रकार यह विभाग मुख्य रूप से मार्गणाओं के विवेचन से सम्बन्धित है, फिर भी इसकी गाथा क्रमांक ३ से लेकर ७ पर्यन्त बासठ मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । इसमें यह बताया गया है कि किस मार्गणा में कितने गुणस्थान पाए जाते हैं । द्वितीय विभाग की ६२ वीं गाथा में चौदह गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों का सत्ता सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किया गया है । इन दो निर्देशों को छोड़कर विचारसार प्रकरण के द्वितीय विभाग में गुणस्थान सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है । इस प्रकार गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को लेकर विचारसार प्रकरण का प्रथम विभाग ही महत्वपूर्ण है और यही कारण है कि इसे गुणस्थान शतक नाम दिया गया है और इसी दृष्टि से हमने गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में इसे स्थान दिया है।
विचारसार प्रकरण के गुणस्थान शतक का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें मूल ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। उसकी टीका
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