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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय.........{222} अन्तर अनुयोगद्वार में सम्यक्त्वमार्गणा के अन्तर्गत क्षायिक सम्यक्त्ववाले और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि३२७ वर्ष होता है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा भी अन्तरकाल नहीं है, एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेंतीस सागरोपम होता है । चारों उपशमक क्षायिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेंतीस सागरोप है । शेष गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवों का अन्तरकाल, अन्तर - अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही होता है । क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि २६ वर्ष है। संयतासंयत क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ क छासठ३३० सागरोपम है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेंतीस ३१ सागरोपम है । औपशमिक असंयतसम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात्रि का होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संयतासंयत औपशमिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात्रि है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन-रात्रि है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तीनों उपशमकों का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा अन्तर ३२ नहीं है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । 1 अन्तर अनुयोगद्वार में संज्ञीमार्गणा के अन्तर्गत संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि का अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, उसके अनुरूप ही समझना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि सभी संज्ञी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादन गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थान में भी ३२७ संयतासंयत के आठ वर्ष और चौदह अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्व कोटि साधिक तेंतीस सागरोपम प्रमत्तसंयत को एक अन्तर्मुहूर्त और एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम अथवा साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तें तीस सागरोपम । अप्रमत्तसंयत के साढ़े पांच अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम । ३२८ चारों उपशमकों के आठ वर्ष और क्रम से २७, २५, २३ और २१ अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम । ३२६ चार अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि । ३३० तीन अन्तर्मुहूर्त कम छासठ सागरोपम । ३३१ प्रमत्त के सात अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम और अप्रमत्त आठ अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम। ३३२ क्योंकि उपशमश्रेणी से उतरकर उपशम सम्यक्त्व छूट जाता है । यदि अन्तर्मुहूर्त बाद पुनः उपशमश्रेणी पर चढ़ता है, तो वेदक सम्यक्त्वपूर्वक दूसरी बार उपशम करना पड़ता है । यही कारण है कि उपशम सम्यक्त्व में एक जीव की अपेक्षा उपशान्त कषाय का अन्तर नहीं प्राप्त होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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