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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
चतुर्थ अध्याय........{221}
का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अ नयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम२२४ है । चारों क्षपकों का अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। अवधिदर्शनवालों का अवधिज्ञानी के समान और केवलदर्शनवालों का अन्तरकाल केवलज्ञानी के समान ही होता है।
लेश्यामार्गणा की अपेक्षा से कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम तेंतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट है, वही मानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादन गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग व सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल तीनों लेश्याओं में क्रमशः कुछ कम तेंतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है।
पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर दोनों लेश्याओं में क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट है, उसी के अनुसार समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर दोनों गुणस्थानों में दोनों लेश्याओं में क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर में क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है।
शुक्ललेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, वही जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है । संयतासंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल पीतलेश्या के समान होता है । अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त३२५ है। तीन उपशमक सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कथन है, उतना ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त३२६ है। उपशान्तकषायवाले सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए। उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, उसके अनुसार ही जानना चाहिए तथा एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों क्षपक, सयोगी केवली और लेश्यारहित जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए।
भव्यमार्गणा की अपेक्षा से भव्यों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अभव्य सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है ।
३२४ चक्षुदर्शनवालों में चारों उपशामकों का क्रम से २६, २७, २५ और २३ अन्तर्मुहूर्त तथा आठ वर्ष कम दो हजार सागरोपम का उत्कृष्ट अन्तर है। ३२५ उपशमश्रेणी से अन्तरित करके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त करना चाहिए। ३२६ अप्रमत्तसंयत से अन्तरित करके यह अन्तर प्राप्त करना चाहिए।
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