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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.........
चतुर्थ अध्याय ........{220}
अन्तर वर्ष पृथक्त्व है। ३" एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । मनः पर्यवज्ञानी में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त २६ है । चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, जैसा अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथन किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि ७ है । चारों क्षपकों का अन्तर अवधिज्ञानी कै समान ही है । केवलज्ञानी सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थानवाले जीवों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा सामान्य रूप से निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए ।
षष्ठ अन्तर अनुयोगद्वार के अनुसार संयममार्गणा की अपेक्षा सामायिक चारित्रवाले और छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दोनों उपशमक सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया गया है, वही मानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्व कोटि" वर्ष होता है । सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले दोनों क्षपकों में अन्तरकाल, अन्तर - अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, उसी के अनुसार जानना चाहिए। परिहारविशुद्धि चारित्रवालों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ३२० है । सूक्ष्मसंपराय चारित्रवालों में सभी उपशमक जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । सूक्ष्मसंपराय चारित्रवाले सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती क्षपक का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए । यथाख्यातचारित्रवाले जीवों का अन्तर कषाय रहित जीवों के समान ही होता है । संयतासंयत सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेंतीस २१ सागरोपम है । शेष तीन गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा सामान्य रूप से निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए ।
दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया . है, वैसा ही मानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, वैसा ही जानना चाहिए । उक्त दोनों गुणस्थानों में एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम*२२ है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थान में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम२२३ । चारों उपशमकों
३१५ अवधिज्ञानी प्रायः बहुत ही कम होते है, इसलिए इतना अन्तर बन जाता है ।
३१६ उपशमश्रेणी और प्रमत्त- अप्रमत्त का काल अन्तर्मुहूर्त होने से मनः पर्यवज्ञानी प्रमत्त और अप्रमत्त का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जाता है ।
३१७ आठ वर्ष और १२ अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि ।
३१८ प्रमत्त से अप्रमत्त में और अप्रमत्त से प्रमत्त में अन्तरित होवें तो यह अन्तर बनता है ।
३१६ आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अपूर्वकरण का उत्कृष्ट अन्तर है । अनिवृत्तिकरण का समयाधिक नौ अतर्मुहुर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्व कोटि उत्कृष्ट अन्तर है ।
३२० प्रमत्त और अप्रमत्त को परस्पर अन्तरित होने पर यह अन्तर आ जाता है ।
३२१ चक्षुदर्शनवालों में अविरतसम्यग्दृष्टि के १० अन्तर्मुहूर्त कम, संयतासंयत के ४८ दिन और १२ अन्तर्मुहूर्त कम, प्रमत्तसंयत के ८ वर्ष १० अन्तर्मुहुर्त कम और अप्रमत्त संयत के भी ८ वर्ष और १० अन्तर्मुहूर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है ।
३२२ यह अन्तर सातवें नरक में प्राप्त होता है ।
३२३ चक्षुदर्शनवालों में सासादन के नौ अन्तर्मुहूर्त और आवलिका का असंख्यातवाँ भाग कम तथा सम्यग्मिध्यादृष्टि के बारह अन्तर्मुहूर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है ।
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