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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{223} जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है । चारों क्षपकों का अन्तरकाल. अन्तर-अनयोगद्वार में जो निर्देशित किया गया है. वही समझना चाहिए । असंजी सभी जीव और एकजीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । संज्ञी-असंज्ञी सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, उसी के अनुरूप ही जानना चाहिए। अन्तर अनुयोगद्वार में आहारमार्गणा की अपेक्षा आहारकों में मिथ्यादृष्टि का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जैसा दर्शाया गया है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादन गुणस्थान में पल्योपम का अंसख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है, जिसका परिणाम असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सभी आहारक जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगल का असंख्यातवाँ भाग है, जिसका परिमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है । चारों उपशमक सभी आहारक जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, उसी के समरूप जानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है जिसका परिमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है । चारों क्षपक और सयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, उसे ही समझना चाहिए। __ अन्तर अनुयोगद्वार में आहारमार्गणा में अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। असंयत सम्यग्दृष्टि का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मास पृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छः महीना है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। सप्तम भाव-अनुयोगद्वार :तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठ अनुयोगद्वारों की अपेक्षा से चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया है । उसमें सप्तम भाव अनुयोगद्वार में पांचों भावों की अपेक्षा चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। भावों के पांच प्रकार बताए गए हैं। १. क्षायिक, २. औपशमिक, ३. क्षायोपशमिक, ४. औदयिक और ५. पारिणामिक। इन पांच भावों का निरूपण भी सामान्य और विशेष-ऐसी दो अपेक्षाओं से किया गया है। भाव अनुयोगद्वार में सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-यह औदयिक भाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि-यह पारिणामिक२३३ भाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि-यह क्षायोपशमिकरण भाव है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु इसमें भी असंयतता औदयिक भाव की अपेक्षा से है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-यह ३३३ सासादन सम्यक्त्व-यह दर्शन मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से नहीं होता, इसीलिए निष्कारण होने से पारिणामिक भाव है । ३३४ सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक मिला हुआ जीव परिणाम होता है । उसमें श्रद्धानांश सम्यक्त्व अंश है। सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का उदय उसका अभाव करने में असमर्थ है । इसीलिए सम्यग्मिथ्यात्व यह क्षायोपशमिक भाव है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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