________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{224} क्षायोपशमिक भाव है । आठवें से ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती चारों उपशमकों के औपशमिक भाव हैं तथा आठवें, नवें, दसवें, और बारहवें गुणस्थानवर्ती चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली के क्षायिक भाव हैं ।
सर्वार्थसिद्धि टीका में भाव अनुयोगद्वार में विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में पहली पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे निर्देशित किए गए हैं, वैसे ही समझना चाहिए । दूसरी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि नारकी जीवों के भाव भी भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे दर्शाए गए हैं, वैसे ही समझना चाहिए । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के औपशमिक या क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु इसमें भी असंयतता तो औदयिक भाव की अपेक्षा ही है । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप जानना चाहिए। देवगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे निर्दिष्ट किए गए हैं, वैसे ही समझना चाहिए ।
इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों के औदयिक भाव हैं । पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वैसे ही समझना चाहिए।
कायमार्गणा में पांचों स्थावर में औदयिक भाव है, त्रसकाय के भावों के सम्बन्ध में भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसा ही मानना चाहिए।
योगमार्गणा में काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीवों के और अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसे ही मानना चाहिए।
वेदमार्गणा में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नंपुसकवेदवाले और वेद रहित विभिन्न गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे निर्दिष्ट किए गए हैं, वैसे ही मानना चाहिए।
कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायवाले और कषाय रहित विविध गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसे ही मानना चाहिए ।
ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों के भाव विविध गुणस्थानों की अपेक्षा भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा दर्शाया गया है, वैसे ही समझना चाहिए।
संयममार्गणा में सभी संयतों के, संयतासंयतों के और असंयतों के भाव, उनके गुणस्थानों की अपेक्षा से भाव के सम्बन्ध में भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसे ही मानना चाहिए।
दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, और केवलदर्शनवाले जीवों के भाव, उनके गुणस्थान की अपेक्षा से भाव अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जिस प्रकार निर्देशित किया गया है, वैसे ही जानना चाहिए।
लेश्यामार्गणा में छहों लेश्यावाले और लेश्यारहित जीवों के भाव, उनके गुणस्थानों की अपेक्षा भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसे ही मानना चाहिए।
भव्यमार्गणा में भव्यों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के भावों के सम्बन्ध में भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । मिथ्यादृष्टि अभव्यों के पारिणामिक भाव३३५ होते हैं ।
सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव का सम्यक्त्व क्षायिक भाव है, किन्तु
३३५ यों तो ये भाव दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के उदय आदि की अपेक्षा बतलाये गए है, किन्तु अभव्यों के अभव्यत्व भाव क्या है, इसकी अपेक्षा
भाव का निर्देश किया है । यद्यपि इससे क्रम भंग हो जाता है, तथापि विशेष जानकारी के लिए ऐसा किया है । उनका बन्धन सहन जी अत्रुच्युत सन्तानवाला होने से उनके पारिणामिक भाव कहा है, यह इसका तात्पर्य है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org