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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{181} का सूक्ष्मकाययोग का भी निरोध हो जाने से अनिवृत्तिनिरोध योग है । सभी ध्यानों में अन्तिम है अतः उत्कृष्ट है । शेष कोई ध्यान नहीं है अतः अनुत्तर है । परिपूर्णतया स्वच्छ उज्जवल होने से शुक्लध्यान है । मणि के प्रकाश की शिखा के समान अविचल है । समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति चतुर्थ शुक्लध्यान के स्वामी चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ही हैं । यद्यपि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में मन का व्यापार नहीं होता है, फिर भी उपचार से पूर्व के शुक्लध्यान की अपेक्षा ध्यान कहा गया है । जैसा कि पहले किसी घड़े में घी रखा जाता था, किन्तु बाद में उस घड़े में घी नहीं रखने पर भी उसे घी का घड़ा कहा जाता है। पुरुषवेद का उदय नवें गुणस्थान में विच्छेद हो जाता है, फिर भी पूर्व की अपेक्षा पुरुषवेद से मोक्ष की प्राप्ति कही जाती है। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में मन का व्यापार न होने से इनमें 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' यह ध्यान का लक्षण नहीं पाया जाता है, फिर भी ध्यान से कर्मों का नाश होता है, अतः इन्हें उपचार से ध्यान माना गया है। आचार्य वट्टकर विरचित मूलाचार के उत्तरार्द्ध भाग के अनगारभावनाधिकार नामक नवें अधिकार की ८८५ वीं गाथा में कहा है कि कौन-से ध्यानवाले साधक को कषायें पीड़ा नहीं देती हैं। कषायों का उन्मूलन करने के लिए आर्तध्यान और रौद्रध्यान का परिहार करके धर्म ध्यान और शुक्लध्यान करना चाहिए। शुक्ल लेश्यावाले मुनि को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्राप्त होने वाली कषायें पीड़ा नहीं देती हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म-शुक्ल ध्यान में प्रवेश करने वाले मुनि को परीषह पीड़ित नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वहाँ तो संज्वलन कषाय चतुष्क और पुरुषवेद ही होता है। मूलाचार के दसवें समयसार नामक अधिकार की ६११ वी गाथा में श्रमण के दस कल्पों का वर्णन किया गया है । इसमें सातवाँ ज्येष्ठ नामक कल्प है, ज्येष्ठ अर्थात् बड़प्पन। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में ज्येष्ठ होता है । परम्परा में अधिक समय की दीक्षित आर्यिका से आज का दीक्षित मुनि ज्येष्ठ है। इन दस कल्पों में से ज्येष्ठ कल्प में ही गुणस्थान का वर्णन है, अन्य किसी में नहीं है। मूलाचार के समयसार नामक दशम अधिकार की ६४२ वीं गाथा में गुणस्थान की अपेक्षा चारित्र के माहात्म्य का वर्णन उपलब्ध होता हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों की तो बात ही छोड़िए, सम्यग्दृष्टि भी यदि संयम रहित है, असंयमी है, तो उसका तप भी महागुणकारी नहीं होता है। गुण शब्द के अनेक अर्थ यहाँ बताए गए है और कुछ दृष्टान्त भी हमें प्राप्त होते हैं। 'रूपादयों गुणाः'-इस सूत्र में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, पृथक्त्व और परिणाम आदि गुण शब्द से कहे जाते हैं। 'गुणभूतावयमत्रनगरे' अर्थात् इस नगर में हम गौण हैं, यहाँ पर गुण शब्द अप्रधानवाची है । 'यस्य गुणस्य भावात्' यहाँ पर विशेषण अर्थ में गुण शब्द है । 'गुणोऽनेन कृतः'-इसने उपकार किया है-यहाँ पर गुण शब्द उपकार अर्थ में है । इस गाथा में भी गुण शब्द को उपकार अर्थ में लेना चाहिए। अतः अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का तप उपकार करने वाला नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि होते हुए भी असंयत आत्मा का तप कर्मों के निर्मूलन में समर्थ नहीं है। वह तो हस्तिस्नान ही है । जैसे हाथी स्नान करके स्वच्छता को धारण करता है किन्तु वह पुनः सूंड से धूली को लेकर अपने ऊपर डाल लेता है, उसी प्रकार से तप के द्वारा कर्मों के निर्जीर्ण हो जाने पर भी असंयत आत्मा के असंयम के कारण बहुत से कर्मो का आस्रव होता रहता है। दूसरा दृष्टान्त चुंदच्छिद का है। चुंद-काष्ठ, उस को छेदनेवाला चुंदच्छिद । जैसे काष्ठ को छेदनेवाले बरमों की रस्सी होती रहती है, अर्थात जैसे लकडी में छेद करने वाले बरमें की रस्सी उसमें छेद करते समय एक तरफ से खलती और दूसरी तरफ से बन्धती रहती है, उसी प्रकार से असंयत आत्मा का तप एक तरफ से कर्मो का क्षय करता है और असंयम द्वारा दूसरी तरफ से कर्मो का आसव कर लेता है अथवा चुंदच्युतकमिव अर्थात् मंथन चर्मपालिका के समान वह तप संयमहीन होता है । तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थानवी जीव संयत होते हैं। उनके चारित्र का माहात्म्य यह है कि ये जीव कर्मबन्धन में सतत जागृत-सावधान रहते हैं। _मूलाचार के समयसार नामक दशम अधिकार की ६८७ वीं गाथा में बताया गया है कि प्रत्यय कारण है । कारणों के नष्ट हो जाने पर कार्य भी नष्ट हो जाते हैं, इसीलिए सभी साधुओं को चाहिए कि वे कारण का विनाश करें। तात्पर्य यह है कि क्रोध, Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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