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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{180) टीकाकार ने 'जिणवर' शब्द से प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संयत को वहाँ जिनवर कहा है। उसमें भी वृषभ समान श्रेष्ठ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती को जिन कहा है।
मूलाचार के चतुर्थ अधिकार की २४४ वीं गाथा में मूल में तो गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, परन्तु टीका में बन्ध के विषय में गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है । जीव योग से प्रकृति और प्रदेशबन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध करता है। कषायों के अपरिणत और उच्छिन्न हो जाने पर स्थितिबन्ध के कारण नहीं रहते । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कषाय और योग होने के कारण चारों प्रकार के बन्ध करते हैं, किन्तु उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव कषायों का उपशम या क्षय हो जाने के कारण मात्र प्रकृति और प्रदेश बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थान में कषाय और योग दोनों का अभाव होने से जीव अबन्धक होता है ।
मूलाचार के चतुर्थ अधिकार में ३४६ वीं गाथा के मूल में तथा संस्कृत टीका में तो गुणस्थान का उल्लेख नहीं किया गया है, परन्तु हिन्दी अनुवाद में बताया गया है कि जो अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रखते हैं, ऐसे मुनि का जीवन पर्यन्त आहार का त्याग भक्त प्रत्याख्यान नाम का समाधिमरण है । जो अपने उपकार की अपेक्षा सहित और पर के उपकार से निरपेक्ष है, वह इंगिनीमरण है । जिस मरण में अपने और पर के उपकार की अपेक्षा नहीं है, वह प्रायोपगमन मरण है । ये तीन प्रकार के मरण हैं, अर्थात् छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गणस्थान तक के जीवों का मरण पण्डितमरण है।
मूलाचार के चतुर्थ अधिकार में ४०४ वीं गाथा में आचार्य वट्टकेर ने बताया है कि उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुण मुनि पृथक्त्वविचार शुक्लध्यान को और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि एकत्ववितर्कअविचार नामक शुक्लध्यान को करते हैं। जीवादि द्रव्य अनेक भेदों वाले हैं। मनि इनको मन, वचन और काय-इन तीन योगों द्वारा ध्याते हैं. इसीलिए इस ध्यान को पृथक्त्व कहते हैं। श्रुत को वितर्क कहते हैं। नवपूर्वधारी, दशपूर्वधारी और चौदहपूर्वधारी के द्वारा किया जाता है, इसीलिए वितर्क कहलाता है। अर्थ. व्यंजन और योगों के संक्रमण को विचार कहते हैं, जो एक अर्थ-पदार्थ को छोड़कर भिन्न अर्थ का ध्यान करता है. मन से चिंतन करने के बाद वचन से करता है. पनः काययोग से ध्याता है । इस तरह परम्परा से योगों का संक्रमण होता है । यहाँ द्रव्यों का संक्रमण होता है और व्यंजन अर्थात् पर्यायों का भी संक्रमण होता है। पर्यायों में व्यंजन पर्याय स्थूल पर्याय हैं और जो वचन के अगोचर सूक्ष्म पर्याय हैं, वे अर्थ पर्याय कहलाती हैं। इनका संक्रमण इस ध्यान में होता है, इसीलिए यह ध्यान विचार सहित है, अतः इस ध्यान का नाम पृथक्त्ववितर्कविचार शुक्लध्यान है । इस ध्यान के स्वामी उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि हैं ।
क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि एकत्ववितर्कअविचार ध्यान को ध्याते हैं। वे एक द्रव्य को अथवा एक अर्थपर्याय को या एक व्यंजन पर्याय को किसी एक योग के द्वारा ध्याते हैं, अतः यह ध्यान एकत्व कहलाता है । इसमें वितर्क-श्रत पर्वकथित ही हैं. अर्थात् नौ, दस या चतुर्दशपूर्वो के वेत्ता मुनि ही ध्याते हैं। अर्थ, व्यंजन और योगों की संक्रांति से रहित होने से यह ध्यान अविचार हैं। इस ध्यान के स्वामी क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि ही है। पृथक्त्ववितर्कविचार ध्यान उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती मुनि और एकत्ववितर्कअविचार ध्यान क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनि ही करते हैं।
मलाचार के चतर्थ अधिकार की ४०५ वीं गाथा में आचार्य वट्टकेर बता रहे है कि सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान को सयोगीकेवली गणस्थानवर्ती मुनि और समुच्छिन्नक्रिया नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ही ध्याते हैं। जिन में काययोग की क्रिया भी सक्ष्म हो चकी है. वह सक्ष्मक्रिया ध्यान है। यह अवितर्क और अविचार है अर्थात् श्रुत के अवलम्बन से रहित है, अतः अवितर्क है और इसमें अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण नहीं है, अतः अविचार है । ऐसे सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान के स्वामी सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ही हैं। समुच्छिन्न नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ध्याते हैं। वह अविचार, अनिवृत्तिनिरूद्ध योग, अनुत्तर, शुक्ल और अविचल है । इस समुच्छिन्न ध्यान में श्रुत का अवलम्बन न होने से अवितर्क हैं। अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति न होने से अविचार है । सम्पूर्ण योगों
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