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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
षष्टम अध्याय........{409)
स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणश्रेणी की अवधारणा दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में कार्तिकेयानुप्रेक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा३७५, स्वामी कार्तिकेय की रचना मानी जाती है । इनका एक अन्य नाम कुमारश्रमण भी प्रचलित रहा है । इस ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपने इसी नाम का संकेत दिया है । यह ग्रन्थ बारह अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का चित्रण करता है । कालक्रम की दृष्टि से यह ग्रन्थ पांचवीं-छठी शताब्दी के लगभग माना जा सकता है । जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त का प्रश्न है, इस ग्रन्थ में कहीं भी चौदह गुणस्थानों का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । इस आधार पर डॉ. सागरमल जैन इसे चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और पांचवीं शताब्दी के पूवार्द्ध का ग्रन्थ मानते हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणस्थान सिद्धान्त का चाहे अभाव हो, किन्तु उसमें कर्मनिर्जरा ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख उपलब्ध होता है । जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम तथा आचारांगनियुक्ति में दस अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ इसमें ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम में वेदनाखंड की भूमिका में मूलगाथाओं में दस अवस्थाओं का ही चित्रण है, किन्तु उसके सूत्रों में अन्तिम जिन अवस्था के सयोगी और अयोगी-ऐसे दो विभाग करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है । स्वामी कार्तिकेय ने भी निर्जरा अनुप्रेक्षा में इन्हीं ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है; किन्तु जहाँ तत्त्वार्थसूत्र में इन दस अवस्थाओं का चित्रण सम्यग्दृष्टि से प्रारम्भ होता है, वहीं कार्तिकेयानुप्रेक्षा में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि (अविरत) को असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । इस प्रकार प्रकारान्तर से उन्होंने मिथ्यादृष्टि नामक अवस्था का भी संकेत किया है, क्योंकि सम्यक् की उपलब्धि के हेतु त्रिकरणवर्ती आत्मा के अपूर्वकरण करते समय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय ने निर्जरा अनुप्रेक्षा की चर्चा में जिन बारह अवस्थाओं का निर्देश किया है, वे निम्न हैं - (१) मिथ्यादृष्टि (२) सम्यग्दृष्टि (३) अणुव्रतधारी (४) महाव्रतधारी (५) प्रथम कषाय चतुष्क वियोजक (६) दर्शनमोहक्षपक (७) कषाय उपशमक (८) उपशान्तकषाय (E) क्षपक (१०) क्षीणमोह (११) सयोगी और (१२) अयोगी।३७६ इस प्रकार यहाँ मिथ्यात्व का समावेश करने पर तथा सयोगी और अयोगी का विभेद स्वीकार करने पर भी कुल ग्यारह अवस्थाओं का ही उल्लेख मिलता है । मूलगाथाओं में कषायउपशमक के बाद उपशान्तकषाय का उल्लेख नहीं हुआ है । यदि हम उस समाविष्ट करते हैं, तो बारह नाम उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन नामों में कहीं भी सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख नहीं है । उसके स्थान पर क्षपक और उपशमक के उल्लेख मिलते हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में दंसणमोहतिअस्स और उवसमगचत्तारि-ऐसे शब्दों का उल्लेख हुआ है । अनुवादकों ने यहाँ दंसणमोहतिअस्स में तीन करणों का समावेश किया है, किन्तु उवसमगचत्तारि से क्या ग्रहण किया जाए, यह स्पष्ट नहीं होता है। सम्भावना यह मानी जा सकती है कि यहाँ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह-ऐसी चार अवस्थाओं का निर्देश हो सकता है किन्तु यह मानने पर हमें यह भी मानना होगा कि स्वामी कार्तिकेय गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित रहे है, लेकिन उनके इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी स्पष्ट निर्देश न मिलने से वास्तविकता क्या है, इसे कहना कठिन है ।
प्रयोगिन्दुदेव के योगसार में गुणस्थान K योगिन्दुदेव, दिगम्बर परम्परा के एक मूर्धन्य विद्वान है । इनके दो ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। एक परमात्मप्रकाश और दूसरा योगसार । हमें इनके योगसार२७७ नामक ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा का संकेत उपलब्ध होता है । योगसार की सत्रहवीं गाथा में वे कहते है कि व्यवहार दृष्टि से ही आत्मा में मार्गणास्थान और गुणस्थान की चर्चा की जाती है, निश्चयनय से तो आत्मा
३७५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, लेखक : कार्तिकेय, प्रकाशन : दुलीचन्द जैन ग्रन्थमाला मदनगंज किशनगढ़ (राज.)
प्रथमावृत्ति : वी.नि.सं. २४७७, २५०० ३७६ मिच्छादो सधिट्ठी, असंखगुणकम्मणिज्जरा होदि । तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई णाणी ।।१०६।।
पढमकसायचउण्हं, विजोजओ तह य खवयसीलो य । दसणमोहतियस्स य, तत्तो उवसमग-चत्तारि ।।१०७।। खवगो य खीणमोहो, सजोइणाहो तहा अजोईया । एदे उवरि उवरिं, असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०८।।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा क्रमांक-१०६, १०७, १०८ (दुलीचंद जैन ग्रन्थमाला सोनगद, सौराष्ट्र, द्वितीय संस्करण वी.नि.सं. २५००) ३७७ योगसार, लेखक : ब्रहमदेव, हिन्दी भाषा टीका : दौलतराम, प्रकाशन : श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, आगास (गुज.)
षष्ठम संस्करण, वि.सं. २०५६, वीर.नि.सं. २५२६
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